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माज़रा

समझो ना मेरा दर्द क्या है? तुम ही ऐसे मौन रहोगे तो कौन समझेगा मेरा मर्ज क्या है? चलो कुछ ऐसे समझते है। नज़रो को एक दूसरे से मिलाते हैं। आओ मिल कर एक पहेली सुलझाते है। आबाद नही बर्बाद है। सासे है मगर धड़कन नही। दुआ है मगर सलामती नही। खोई हुई हूँ मगर मेला नही। "अब तुम भी समझो ना बात क्या है"? बरशती है मगर सावन नही। कह जाती है, सब कुछ मगर आवाज़ नही। बेतुके जवाब है, मगर सवाल नही। अब तुम समझो यह माज़रा क्या है? दिल की लगी है कोई खेल नही। अब तुम भी समझ जाओ ना मर्ज़ क्या है। क्योंकि तुम्हारे सिवा मेरे पास कोई "हक़ीम" नही।         -राधा माही सिंह