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Showing posts from October, 2020

मैं

ना जाने किस मोड़ पर आ खड़ी हूँ मैं। जहाँ अपने तो बहुत है,मगर वो अपने नही। गज़ब सी बेगानी लगती है वो गलियां जब कि उन गलियों में मकान है मेरा। हम गुजरे हुए वक़्त की तरह हुए जा रहे है। इन झूठी मुस्कुराहटों के तले खुद को दबाते जा रहे है। इन आँखों मे चमक मेरी आंसुओ की है,मगर हम उसकी क़ीमत भी "खोते" जा रही हूँ मैं। सोचती हूँ शायद खुश हूँ मैं,मगर सच है लोगों को कम खुद को ज्यादा दिखाते जा रही हूँ मैं। हर रोज़ मोमबत्ती की तरह घटते जा रही हूँ मैं।    -राधा माही सिंह 

यात्रा सरकारी बस से।

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यात्रा सरकारी बस से। धकम-धुकी जनहित में जारी। बकम-बकी हरहित में जारी। चचा लड़ेंगे अबकी बेरी! अरे बक बुड़बक "हम चुनाउआ के बात कर रहे है हो।" तुम तो मर्दे "ढकेलले" जा रहे हो। ऐ हो "आगे" चलबै। सूचना सब "लिंग"में जारी यह बस है सहकारी। धकम-धुकी जनहित में जारी सब ही है यहवा के प्रभारी। "सुनलो भैया यह बस है सहकारी।" चोरी-चपारि,घुट-घुट में जारी। हमहू है यहाँ के प्रभारी। बईठल बानी कौन हारी। सकम-सुकिम खूब चलेला,नैन मटका खूब लगेला। मेहर-मरदें खूब लड़ेला। सुना जन लोग "ई बस है सहकारी।" हमहू आज ठनले बानी निंदिया के त्यागले बानी करल जाई जगवारी। धकम-धुकी जनहित में जारी। बकम-बकी हरहित में जारी।  सुनल जाई ऐसो सब के गारा-गारी। जाने ई बार केकर सरकार गिरी? केकर कोइरा के गाज खुली? बक मर्दे गिरी तो गिरी खुली तो खुली रहल जाई अंगाडी। सूचना जनहित में जारी "ई बस है सहकारी।" शब्द :---- चचा:- चाचा, चुनाउआ:- चुनाव, ढकेलले:- जबर्दस्ती, चलबै :- चलना (यह एक मेधली शब्द है), लिंग:- समूह, सहकारी:- सरकारी, यहवा:- यहाँ, प्रभारी:- प्रशासन, चोरी-च

औरत का अस्त्तित्व

औरत का दूसरा नाम त्याग होता है माँ तुम ही तो बतलाई थी। औरत का जेवर संस्कार होता है माँ तुम ही तो सिखलाई थी। इन हाथो में मेहंदी की बूटी सबसे पहले तुम ही तो लगाई थी। किसी दिन छोड़ पीहर का आंगन  साजन के द्वार सजाना है,इस रचना का मुख्य धारा माँ तुम ही तो निभाई थी। जब छोड़ बचपन किसी और आँगन,सपना कई सजाए थी। औरत का अभिमान होता है दर्दो का चादर यह भी तुम ही पढ़ाई थी। मगरूरी में रहना माँ तुम्ही सिखलाई थी। औरत का सर का ताज होता हैं अभिमान, स्वामित्व की परिभाषा। औरत दूँगा तो कभी काली होती है माँ तुम ही तो पहचान कराई थी। सही ग़लत का पाठ तुम ही तो पढ़ाई थी।            - राधा माही सिंह 

ये ज़िन्दगी

मचलती शामों की तरह होती है ये ज़िन्दगी। और मृत्यु ढलती अमावश की रात। बस इतना सा फासला होता है, सुख और दुःख में। कहने पर सुख पहले आता है,और दुःख बाद में। मगर हाकितक यही है,की दुःख के बाद सुख आता है। हम भोग कर रहे हैं ज़िन्दगी का। संभोग बाकी है,जिंदगी में। काफी उतार चढ़ाव के बाद आता है ज़िन्दगी में एक ठहराव। और उसके बाद का पड़ाव मृत्यु। मृत शरीर का काफरा बस चार कंधों पर का होता है। मगर उन्ही चार कंधों को इस लायक बनाने में ज़िन्दगीयाँ लग जाता है। हम और आप तो केवल एक मनुष्य है। मगर फिर भी सवाल बने हुए है। कौन कहा तक पंहुचा?  उसे उतना क्यों मिला है? मेरी किस्मत इतनी बुरी क्यों है? खुद लेकर हम बैठ गए है। अच्छा बुरा हम क्यों तय करे? हम बस अपने कर्मो के अनुशरण फल मांगे तो कितना अच्छा होता। आज ग़रीब भी दो वक़्त की रोटी और अच्छे मकानों में रहता। हम भूल गए है इंसानियत की परिभाषा। कितना अच्छा होता वही बचपन की ज़िन्दगी आज भी हमारे हक में होता। ना "चोर गिरोह"दिलो में ना "प्रपंचो" से दिमाग़ होता। कितना अच्छा होता। अगर आज मचलती शाम सी ना बल्कि काली घटा सी ये जिंदगी होती। एक बार बरश कर कहि खि