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Showing posts from March, 2020

डर लगता है।

माँ अब डर लगता है मुझको बेटी होने पर। दाग ना लग जाये मेरी योबन पर। माँ अब डर लगता है मुझको बेटी होने पर। जवानी की कहानी मत याद दिलाना अब तू सिमट सी गई है मेरी बचपन एक बिस्तर पर। माँ अब डर लगता है मुझको मेरी बेटी होने पर। गुरु को गुरु की मगरूरी नही  अब रिश्तों में मिलावट सा होने लगा है।  दुसरो की बहन,बेटी कौड़ी के भाव बिकने लगा है जिंदा जनाजा निकलने लगा है द्वारों पर। माँ अब डर सा लगता है मुझको मेरी लड़की होने पर। संसार का रीत समझ मे नही आता प्रेम का प्रीत कोई को नही भाता अब तो यकीन ना रहा मुझको मेरी दोस्ती पर। माँ अब डर सा लगता है मुझको मेरी बेटी होने पर। माँ मुझको दफ़ना देना हो सके तो खोख में ही मौत का घाट उतार सेना अब मुझको कोई ऐतराज नही भून हत्या पर। माँ अब डर लगता है मुझको मेरी बेटी होने पर। माँ मुझको डर लगता है मुझको बेटी होने पर। सुनो ना माँ मुझको तुम कही छुपा लेना गोद को फाँसी का फंदा बना देना अब इन्तेजार नही मुझको खुदा की मौत मरने पर। माँ डर लगता है मुझको मेरी बेटी होने पर।          -राधा माही सिंह

कुछ यादों के पल

कुछ हसीन लम्हो से उनकी यादो को चुराया हूँ। वो तो ना मिल सके मगर उनकी अदाओ से कुछ अदाएं को चुराया हूँ। खुदा ही जानता होगा की कितने चक्र काटे थे हमने उनकी गलियों का मगर ना जाने कौन किस्मत वाला उन्हें एक अग्नि के सात चक्र काट कर ले गया? अब तक मैं इस हैरत में हूँ। बेगैरत लम्हो से बेबुनियादी रिश्तों के यादों में सिमट कर हर दिन अपने चादर को भिगोया हूँ।  उस तकिए से पूछो की मैं उन काली रातो को कितना रोया हूँ? अब कोई सिकस्त दु तो इस दिल को कैसे दु? उस बेवफा ने तो मुँह माँगा ईनाम जो दिया है।  जिसका मैं हक़दार ना था उन्होंने  वो नाम भी दिया है। कुछ फुर्सत के पलों से मैंने ही उसे चुना था। जिसका शिला इतना बुरा मिला हैं। यह सिलसिला कुछ क़दम और भी बढ़ता की मैं इसे अपने जिंदगी से रुक्सत किया हूँ। सच पूछो तो बुजदिल सा जी कर आज समझा कि कितना बड़ा गुन्हा किया हूँ। कुछ हसीन लम्हो में जी कर खुद से रूबरू किया हूँ। वो तो ना मिल सके मगर उनकी यादों का एक महल अपने दिल मे खड़ा किया हूँ।           -राधा माही सिंह

बचपन

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लड़कपन का अक्सर एक सवाल हुआ करता था। जिसमे उलझ कर उंगलियो के साथ दिमागे भी आसमानों में ठहर जाया करता था और फिर से एक बार तारो को गिनने की अथक प्रयास में बार-बार हार हो जाता था। यु उन्हें कही खो जाना पतंगों के पिछे दौड़ लगाना एक रुपये पाने पर अमीरों सा रुतबा दिखाना और दोस्तो के साथ अक्सर बचकानो सी कहानियाँ बनाना मानो भूत और उसकी प्यारी सी बीवी अपनी ही पिछले वाली कमरे में रही थी। लड़कपन मे जवानी की भूख थी। बचपन मे दिवानी की प्यास थी। कई बार तो उसे दिखाने के वास्ते अपना ही "बेड़ा गर्ग हो जाया करता था" जब सवालों के जवाब ना आने पर पनिशमेंट दिया जाता था। वो अक्सर ही गणित के समय बेसमेंट वाला प्यार याद आया करता था। कॉपी के पन्नो में मयूर का पंख याद आता है की कैसे उस से विधाय पाने के लिए अक्सर ही ना जाने क्या क्या उपचार किया जाता था। और जायज था हमारा अक्सर स्कूल में लेट हो जाना जिस से बेचारे प्रिंसीपल भी बेचारा हो जाया करता था। पतंगों पे अक्सर नम्बर लिख कर ना जाने कौन कमबख़्त गिरा जाता था। बड़ी को पटाने में अक्सर भारी पड़ जाया करता था। तो कभी राश्ते में गुलाब मिलना गालो में लाली

तू बस सवाल है मेरा?

तू बस एक सवाल है मेरा  जो मुझ तक उलझ कर रह जाता है। तू बस एक ख्वाब है मेरा। जो हर सुबह को मुझे तन्हाइयो में छोड़ जाता है। मैं वो राज हूँ तेरी  जो हर पल तू मुझ से पीछा छुड़ाना चाहता है। अब भला तुम से दूर जाऊँ तो कैसे जाऊ? अब तो तू हर चहरे में भी नज़र आता है। फ़क़त नूर नही हूँ मैं। शायद इसलिए भी दूर हूँ। मुझे समझाने नही आता है और यह भी सच है की गर तुम जो रूठो तो मुझे मनाने भी नही आता है। और कितनी मोहब्बत है तुम से जताने भी नही आता है। गर तुम जो रूठो तो मनाने भी नही आता है। मैं वो नींद हूँ। जो अक्सर रोज़ रातो को तेरी तकियों के नीचे सो जाती हूँ। क्या बिगड़ेगा मेरा? जो तू मुझ से दूर जाता है। तू बस एक सुकून है मेरा जो तुझे अक्सर औरो के साथ पाती हूँ। खामोश रह जाती हूँ। क्योंकि भरी महफ़िलो में बदनाम नही करना चाहती हूँ। ख़ैर कदर करे भी तो कैसे करे तू मेरा मैं जो बिना मांगे तुझे मिल जाती हूँ। ख़माखा मगरूरी थी मेरी   जो मैं टूटे हुए काच सी अब नज़र आती हूँ। अब प्यार कर तो क्या और कैसे करूँ? अब मैं हर किसी की कहानी का हिस्सा नही बनना चाहती हूँ।        -राधा माही सिंह