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Showing posts from March, 2021

बचपन ही अच्छा था।

                 बचपन ही अच्छा था। चल पड़ते थे नंगे पांव,भागे फिरते थे इस गली से उस गली। खेला करते थे माँ संग आँख मिचोली। तुर अब सपनो के उड़ान में अखरता है घर की रंगोली। जवानी की चाहत अब हो रही है ख़्तम बचपन-बचपन चीख रहा है ये दम। अब भला कैसे ज़ाहिर करे हम? घुट-घुट कर जी रहे है हम। अब तो आज़ाद कर दो लाओ असल पंखों को। पर(पंख)दो आज मुझमें एक आग भर दो आसमानों को छूने की तमन्ना हो रही है  खत्म। खिलौनों की ओर जा रही है नज़र। की अब सब ख्वाब ख़ाक लगने लगा है,घर की आँगन मुझसे "लौट आओ" कहने लगा है। भला कैसे बताऊँ "उन झुले को की नही आ सकते है हम।"  अब बार-बार लगातार कहते है हम, बचपन ही अच्छा था। बचपन ही अच्छा था। ना जाने क्यों इस जवानी की लोभ में आ गए हम?         - राधा माही सिंह

ना जाने क्यों?

ना जाने क्यों? ना जाने क्यों आज कल रूठा-रूठा सा है मेरा खुदा? ना जाने क्यों आज कल टूटा-टूटा सा है मेरा खुदा? हालांकि शिल्पकार ने कहाँ था मुझसे बातों-बातों में की बड़े ही नाज़ों से बनाया है उसने "खुदाई मैं सम्भल कर करू" ऐसा जताया था उसने। हाथ छुटे बिना ही टूट गया,बिना अवज़ दिए ही रूठ गया। इल्म भी ना है मुझे की कैसे मनाऊ मैं उसे। वो कुछ कहे बिना ही बहुत कुछ आख़िरी बाते कह गया। वो मेरा नही हो सकता शायद-शायद यही कहना था उसे मगर जल्दी में था इसलिए कहाँ "किसी और ने इबादत किया है मेरा" और चला गया। ना जाने मेरा खुदा क्यों मुझसे रूठ गया? -राधा माही सिंह

आख़िरी मुलाकात

आख़िरी मुलाक़ात। ता उम्र साथ रहो हमने कहाँ इतना मांगा है? बस एक आख़िरी मुलाकात ही सही मुकम्मल कर दो ना। क्यों तू आज खुदा बन बैठा है? ता उम्र साथ चलने को नही कहा है हमने,बस कुछ कदम की दूरी है मेरे घर की राहे कम से कम वहाँ तक कि इफाज़त कर दो ना। एक आख़िरी मुलाकात मुकम्मल कर दो ना। बस इतनी सी फ़रियाद है। मुकम्मल हो हमारी आख़िरी मुलाकात बस यही अब तुमसे "आख़िर"में आश है।  ज्यादा तो नही माँगा है हमने तुमसे! बस कुछ लम्हो की तो बात है। तुम उस लम्हो को कुछ पल के लिए मेरे झोली में भर दो ना। मैने कई बार सुना है,तुम्हारी दरिया दिली। सुनो कुछ कदम ही सही मेरे साथ भी चल दो ना।  -राधा माही सिंह