बचपन ही अच्छा था।

                बचपन ही अच्छा था।
चल पड़ते थे नंगे पांव,भागे फिरते थे इस गली से उस गली।
खेला करते थे माँ संग आँख मिचोली।
तुर अब सपनो के उड़ान में अखरता है घर की रंगोली।
जवानी की चाहत अब हो रही है ख़्तम बचपन-बचपन चीख रहा है ये दम।
अब भला कैसे ज़ाहिर करे हम?
घुट-घुट कर जी रहे है हम।
अब तो आज़ाद कर दो लाओ असल पंखों को।
पर(पंख)दो आज मुझमें एक आग भर दो आसमानों को छूने की तमन्ना हो रही है  खत्म।
खिलौनों की ओर जा रही है नज़र।
की अब सब ख्वाब ख़ाक लगने लगा है,घर की आँगन मुझसे "लौट आओ" कहने लगा है।
भला कैसे बताऊँ "उन झुले को की नही आ सकते है हम।" 
अब बार-बार लगातार कहते है हम,
बचपन ही अच्छा था।
बचपन ही अच्छा था।
ना जाने क्यों इस जवानी की लोभ में आ गए हम?
        -राधा माही सिंह

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