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ठीक हूँ मैं

हाँ ठीक हूँ मैं...!! सौ बात की एक बात हूँ मैं। हाँ ठीक हूँ मैं...!! कुछ हुआ है क्या तुम्हे? नहीं तो!! ठीक हूँ मैं....!!! तो चलो आज कही घूम आते हैं। "जब - जेब टटोली ,मैं तो एक सिक्का मेरे जेब में मुस्कुरा रहा था, जाने कितने वर्षों से रखा था, इसका गुमान दिखा रहा था। बस यह देख झटके से मैं बोली। नहीं - नहीं तुम सब हो आओ। मैं यही ठीक हूँ...!!! खैर गौर तलब यह है, कि सबने साथ छोड़ा है मेरा, मेरी जरूरत पर, मगर अब खुदके भरोसे बैठी हूँ मैं, खुदके साया से डर कर। हाँ..... थोड़ी बदहाली है, मगर ये सफर फिर भी जारी है। थोड़ी सी जिद्दी हूँ मैं। अब अगर कोई पूछले तो मैं मन मार कर कह देती हूँ। हाँ - हाँ बिल्कुल ठीक हूँ मैं..!!! - राधा माही सिंह

गैर

गैर के हाथों में हमने रखी थी अपनी खुशियों की चाबी। अपनों का दिल दुखाकर। कि हमसे ना पूछो कि मेरी ख़ता क्या है? बस पूछो कि मेरी ख़ता क्या-क्या हैं? अपनों को ही हमने ज़माने भर की ठोकरें दी हैं, और यह भी पता चला किसी गैर से ठोकरें खाकर। अगर कश्ती डूब जाती है किसी एक के न होने से, तो बेहतर था कि मैं डूब जाता। कि अब हमको ये जाने सितम रुलाती है रह-रहकर, कि गैरों की हिज्र में रोशनी देने का कारोबार था मेरा। कि एक रोज़ हमने अपने ही हाथों से अपने हिज़्र का दीपक बुझा डाला। ले जाओ मेरी तमन्नाओं को मुझसे दूर, कहीं ये मेरे आखिरी शब्द उसे कोई घाव न दे दें। मसला यह नहीं है कि वो मेरा नहीं हुआ, मसला यह है कि हम अपनों के न होकर कैसे सोच लिए कि कोई गैर मेरा अपना हो सकेगा? - राधा माही सिंह

जाने किसने

जाने किसने इन मर्दों को प्रेम करने का अधिकार दिया! अगर स्त्रियां होतीं तो ग़ज़लें लिखी जातीं बर्बादियों की। जनाजे उठते हर घर से प्रेमियों के। अगर जब लिखती मोहब्बत एक स्त्री तो लिखती खुशियां अपने महबूब की। जाने किसने इन मर्दों को प्रेम करने का अधिकार दिया? अगर जो करतीं ये प्रेम स्त्रियां तो लिखतीं पायल की झंकार और सुनतीं गीत हज़ार। लिखतीं कागज़ पर अपनी भावनाएं, मिटती अपनी जवानी। अगर जो लिखती प्रेम स्त्री तो लिखती अपनी कहानी। जाने किसने इन मर्दों को प्रेम लिखने का अधिकार दिया! जो हर बार लिखते हैं और मिटा देते हैं। जो हर बार लिखते हैं और मिटा देते हैं। - राधा माही सिंह 

आजमाइश

यूं आजमाइश करो ना हमारी हर बात पर, हम पहले से ही आजमाए गए हैं। क्या-क्या बताएं और क्या-क्या छुपाएं तुमसे? जमाने भर की ठोकरें हम खाए हुए हैं। यूं छेड़ो ना कोई राग अब तुम, कि दामन में दाग लगाए हुए हैं। कि यूं चोला ना पहना करो मेरे महबूब का तुम, हम उनसे भी आजमाए गए हैं। बे शर्त जीने का ख़्वाब था आंखों में, और प्रेम का उल्लास लिए दफनाए गए है। यूं ना बर्बाद करो हमको, हम पहले से बरबादी के शहर में खो गए है।  यूं ना ज़लील कर तू मुझे जमाने में,हम पहले से ही खुदको - खुदके नज़रों से गिराए हुए है। तुम क्या जानो मेरी रातों का नींद और सुबह का चैन, हम तो सब कुछ एक शख्स के पूछे गवाए हुए है। - राधा माही सिंह

ऐ ज़िंदगी

ऐ ज़िंदगी, तू मुझे कहीं दूर ले चल, जहाँ बस मैं और तू ही रहें। ले चल मुझे उस फ़िज़ा में, जहाँ किसी की कोई तलब न रहे। गर मैं रहूँ ख़ामोश, तो तुम मेरे शब्दों को समझ जाना, मैं कहूँ बहुत कुछ, तो तुम मेरी गहराईयों को छू लेना। ऐ ज़िंदगी, अब हम तुम्हारे ही मोहताज़ हैं, सबने सहारे छिना हैं। हम तिनके-तिनके के लिए तड़पी हूँ। तू ले चल मुझे वहाँ, जहाँ तेरे आगोश में सर रखकर कुछ पल सुकून का सो सकूँ, और इस जहाँ को एतराज़ भी न हो। जहाँ मैं कह सकूँ, तू सुन सके, मैं रो सकूँ, तू हँसा सके, कोई बंदिश न हो, कोई हमें झुठला न सके। ऐ ज़िंदगी, तू मिलना किसी मुसाफ़िर की तरह, जो मैं कहूँ और तू न जा सके। मैं बाँधू तुझे अपने डोर से, तू सिसक सके, मैं बिलख सकूँ। मैं रूठ सकूँ, तू मना सके, बस यूँ ही चलता रहे ये सिलसिला। तू ले चल मुझे वहाँ, जहाँ कोई न जा सके। - राधा माही सिंह

किसी ने पूछा

किसी ने मुझसे पूछा, सुकून क्या है? मैंने कहा, उसका मुस्कुराना। किसी ने मुझसे पूछा, शर्म क्या है? मैंने कहा, उसका मुझसे यूं नज़रों को चुराना। किसी ने मुझसे पूछा, तड़प क्या है? मैंने कहा, उसका मुझसे वादा कर के ना मिलने आना। किसी ने मुझसे पूछा, शिद्दत क्या है? मैंने कहा, मेरा उससे एकतरफा दिल लगाना। किसी ने मुझसे पूछा, मौत क्या है? मैंने कहा, उसका मुझसे रूठ जाना। किसी ने मुझसे पूछा, फिर जज़्बात क्या हैं? मैंने कहा, मेरा उससे लिपटकर रोना और जो कभी पूरे ना हो सकें, उन ख्वाबों को बुनना। -राधा माही सिंह 

क्या इस जहां में

क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां तारे ज़मीन को चूमते होंगे? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां गगन भी अपने मगन में झूमते होंगे? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां बादल आकर मिट्टी की गोद में छुपते होंगे? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं,  जहां पानी की अपनी मिठास होगी? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां नीला अम्बर रहता होगा? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां समंदर में आग नहीं, बल्कि लहरें जलती होंगी? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां पिंजरों से आजाद पक्षी अपने घर को जाते होंगे? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां लोग खुलकर मुस्कुराते होंगे? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां लोग झूठे रिश्ते नहीं बनाते होंगे? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां तारों भरा एक आसमान होगा? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां दीवानों सा एक शायर होगा? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां कलमों की अपनी भाषाएं होंगी? - राधा माही सिंह 

आशा

तुम मुझे - मुझ जैसा ही चाहना। ये समुंदर, ये गहरी आंखों का तवजुब ना देना। सुनो, तुम मुझे - मुझ जैसा ही चाहना। मैं जैसी हूँ, जितनी हूँ, तुम्हारी ही हूँ। झील सी चंचल, मचलती हुई रागनी का कोई दावा ना देना। सुनो। तुम मुझे - मुझ जैसा ही चाहना। गर जो मैं हुई परिवर्तित। तो मैं मुझ से नहीं मिल पाऊंगी! मगर मिलना किसे है खुद से? मैं तुम में ही कही खो कर रह जाऊंगी। जब तने- बने से जी भर जाएगा,तो मुझे - मुझ में तुम्हारी तलाश रहेगी, इसलिए तुम मुझसे परिवर्तन का आश ना कर देना। सुनो ना। तुम मुझे - मुझ जैसी ही चाहना। - राधा माही सिंह 

तुम आना

ये पायल। ये झुमके। ये सब नहीं चाहिए मुझे। तुम जब भी आना तो एक आधा समय ले कर आना। जहां हम दोनों पूरी ज़िंदगी मिल कर गुजरेंगे। ये चॉकलेट। ये महंगे तोफे। इसके हम हकदार तो नहीं है। मगर तुम जब भी आना मेहरबान बन कर प्यार लूटना मुझ पर। हां माना मैं थोड़ी सी ज़िद्दी हूँ। मगर ये दिखाना। ये बात - बात पर जताना। नहीं चाहिए मुझको। तुम जब भी मेरे होना बेपाक इरादों से होना मुंतसर कुछ अधूरा सा ही होना मगर सच्चे इबादत से मेरा होना। मुझको नहीं चाहिए और कुछ भी। जब भी तुम आना मेरे लिए बस एक गुलाब और अपनी एक आधी जिंदगी ले कर आना जो मेरे संग बितानी हो। - राधा माही सिंह

जाने क्यों ?

जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है, कि एक तुझे पा कर मेरी सारी अधूरी सी ख्वाहिश मुकम्मल हो जाएगी? जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है, कि तेरे दीदार भर से मेरी चाहतों की हंसरते पूरी हो जाएगी? जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है, कि तुम्हारे बाहों में उलझ कर मेरी उलझने कम हो जाएंगी? जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है, कि तुम्हारे छूने भर से मेरी बेचैनियाँ मर जाएंगी? जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है, कि मेरी हर बात तुम पर खत्म हो जाएंगी? जाने मुझे क्यों लगता है, कि तुम्हें पा लेने भर से मेरी हर जुस्तजू राबता हो जाएगी

आखिरी शब्द

कुछ शब्दों के मर्यादाओं में हम भी उलझ कर रह गए। तो कुछ हमारी कहानी किसी मोड़ पर आ कर रुक गई। मुसलसल मसला यह नहीं है, कि कौन कहां तक और कब तलक साथ दिया है किसी का हर बार किसी ना किसी को दोस्ती,प्रेम और ना जाने कई रिश्तों के नाम पर छला गया। शब्दों का मानो अम्बार हो, सवालों का कोई समंदर हो, या मानो काली घटा से छट कर एक बूंद आ गिर हो ज़मी पर। देखते ही देखते लेखक का कहना कुछ और बातों से जोड़ा गया। किरदार लिखना चाहता था, मगरिबी का, मगर माथे आया फ़कत गरीबी का, कोई ना सुना ना समझा और एक दीवार खड़ा हुआ। फिर क्या हुआ? लेखक एक रोज आपने कमरे में पाया गया। था नब्ज़ चलता तो हकीम को भी बुलाया गया। हकीम का मर्ज था पैसा, उसे पैसा भी दिलाया गया। मगर लेखक को था जाने की जल्दी, उसने मांग की एक महफिल की । फिर क्या था ? एक बार फिर से महफिल लगाया गया, उसकी माशूका को भी बुलाया गया। जब लेखक देखा हाथों में मेंहदी अपने माशूका के, उससे - उसको अश्रु ना छुपाया गया। फिर क्या था? पहले सांस थमा, आँखें आखिरी दीदार की रुसवाई मांगी और फिर कलेजा बाहर को आ गया। जो आखिरी बूंद बचे थे अश्रु के वो अंगिया पर जा गिरा। "बेचारा...

उनकी आँखें

उनकी आँखों के त्वरूफ़ हम क्या करें? हम खुद ही उनकी आँखों में गोता खाए बैठे हैं। गर कोई पूछे हमसे मुसलसल माजरा क्या है? सच तो यह है कि हम जान बुझ कर घर का रस्ता भुलाए बैठे हैं। क्या कहूँ? क्या लिखूँ उनकी आँखों के बारे में? हम अपना ईमान बचाए बैठे हैं। क्या ग़ज़ल? क्या पहल? और क्या दोपहर! उनकी आँखों का नशा हम कुछ इस तरह से लगाए बैठे हैं। जाने क्या अच्छा क्या बुरा हम उनकी आँखों में हर बार डूब जाने को तैयार बैठे हैं। - राधा माही सिंह 

एक रोज़

एक शाम कही तेरे दरवाज़े पर ठहर कर, अपना कारवा बंद कर देंगे। देखना एक रोज़ तुम्हे पा कर हर मुहिम तुमसे जोड़ देंगे। तुम्हे मालूम ही नहीं तुम मेरे लिए कितने जरूरी हो। तुम दिनकर किसी राजा जैसे मेरे हिरामणि हो। एक रोज़ जब ग़र गुजरूंगा तुम्हारे गलियों से, देखन फिर कभी उस गली का रुख ना करूंगा। तुम लाख जतन कर लेना मगर, मैं नहीं लौटूंगा। देखना तुम्हारे साथ,तुम्हारे पास हर दफा हम होंगे। मगर एक रोज़ तुम्हारे कह देने भर से हम नहीं थमेंगे। तुम्हे मेरे पास आना होगा। देखना ये वक्त का न बहाना होगा। एक रोज जब हम तुम्हारे दरवाज़े पर ठहरेंगे। देखना गौर से कहीं वो मेरा जनाजा होगा। - राधा माही सिंह 
मेरे कर्दार को संभालो जानी। तो समझ आए हम क्या है? बस तुम्हारे तकाजा भर से हम बेवफा नहीं हो सकते। तुम्हे इल्म नही मेरे नुकसान का हमने क्या कुछ नहीं खोया है जिदंगी भर। एक तुम्हारे कह देने भर से हम रह गुजर नही हो सकते। तुम्हे समझ कहा इस दुनियां की। तुम एक समय तक साथ थे मेरे,तुम साथ चलो तो समझ आए की गालियाँ क्या है? कि बहुत से खमियाजा भुगता है हमने। तुम्हारे सुन लेने भर से नज़रिया नही बदल सकता। और तुमने क्या कहा? तुमने बहुत कुछ सुना है मेरे बारे में। तो तुम्हारे सुन लेने भर से मौसमे नही बदल जाया करती। कभी निकलो धूप में तो पता चले। की पीपल की ठंडी छाव क्या है? गर फ़ितरते है मेरी बदल जाना। तो एक तुम्हारे जाने भर से मेरी जिंदगी यूं ना तबाह होती। और शायद तुमने सुना होगा। की हम है,रह गुजर! हाँ गए थे हम कई मखबली बाहों में, यूं रातों को उठ- उठ कर मयखानो में। मगर यकीन मानो तुम्हारी सुगंध मुझे किसी और का होने ही नही देता। - राधा माही सिंह

अब गर

अब गर तुम प्रेम करना तो उससे करना। जो तुम्हे तुम जैसा चाहे। अब गर तुम प्रेम करना तो उससे करना। जो तुम्हे तुम जैसा सराहे । अब गर तुम प्रेम करना तो उस से करना । जो तुमको तुमसे ज्यादा चाहे। तुम्हारी पसंद ना पसंद को स्वीकारे। अब जो तुम प्रेम करना तो बेहद करना। मगर उससे करना जो तुम्हे टूट कर चाहे। - राधा माही सिंह

हर बार एक नही कोशिश करना

नौकरी कब मिलेगी सब ने पूछा। मगर किसी ने नहीं पूछा कैसे मिलेगी? सब ने पूछा कब तक हो जायेगा "एग्जाम क्लियर" मगर किसी ने ये नही पूछा की तैयारी कैसी चल रही है? सबने  पूछा किताबे तो पढ़ रहे हो ना? मगर किसी ने ये नही पूछा कैसे किताबे पढ़ रहे हो। तो किसने सफल व्यक्तियों का उदहारण दे कर कहा उस जैसा करो। मगर किसी ने ये नही पूछा तुम कैसा करना चाहते हो? सब अपने ही है ! जो अपने सवालों को लिए बैठे है। तुम जब भी किसी से मिलना तो पूछना निंदे तो अच्छी आती है ना ? इस बार परीक्षा की तैयारी कैसी चल रही है? संभवता थोड़ी कठिन ही होगी ! क्या हुआ इस बार नही हुआ तो ? अभी तो उम्र बाकी है ना। ये ना सही वो कर लेना, वो भी ना सही तुम आज़ाद ही रह लेना। क्या हुआ जो ना मिला। समझ लेना वह तुम्हारे हिस्से का था ही नही। मगर.....!!!  लिखना खुद की कहानी, हो वो कहानी पुरानी ही सही। कोई क्या पूछेगा? क्या कहेगा? तुम यह मत सोचना। पिता जी ने सारे पैसे झोंक दिए इसकी फिकर तुम मत करना। तुम जो करना चाहते हो तुम वही करना। तुम जैसे चाहते हो! जितना चाहते हो उतना ही करना। कम जायदा इसका उसका इस लिए उस के लिए का फिकर तुम मत करन...

जिद्द

अब वो शाम नही आता मेरे आंगन में। जिस रोज़ से तेरा जाना हुआ है। था ये कैसा जिद्द तुम्हारा आज शहर तुम्हारा अपना  और गांव अनजाना हुआ है? आज बेगाना सारा जमाना हुआ है। जिस रोज से तेरा जाना हुआ है। कभी गिरते थे पत्ते झाड़ कर आंगन में। अब बसंत को भी बहना हुआ है। आखों में हर रोज रहता है सावन। भला सर्दी का कोई ठिकाना रहा है? जिस रोज़ से तेरा जाना हुआ है। था ये गुलशन बहार। आज सुखा - सुखा सा ये संसार हुआ है। जिस रोज से तेरा जाना हुआ है। था ये कैसा जिद्द तुम्हारा आज शहर तुम्हारा अपना और गांव अनजाना हुआ है।               -राधा माही सिंह 

अच्छा लगता है।

मुझे अच्छा लगता है। कभी - कभी हवाओं में रहना। मुझे अच्छा लगता है। यूं खुले बालों को झटकना। मुझे अच्छा लगता है। फूलों के संग बाते करना। मुझे अच्छा लगता है। खुले अस्मानो में सपनों को बुनना। मुझे अच्छा लगता है। किताबों को पढ़ना। मुझे अच्छा लगता है। खुदमे गुम रहना। मुझे अच्छा लगता है।  प्रेम में हो कर भी आज़ाद रहना। मुझे अच्छा लगता है। हवाओं में रहना। मुझे अच्छा लगता है। तितलियों संग उड़ना। मुझे अच्छा लगता है। खुदको हर रंग में रंगना। मुझे अच्छा लगता है। खुदको लिखते रहना। मुझे अच्छा लगता है। संगीतो में घुलना। मुझे अच्छा लगता है। हवाओं के संग- संग बहना।                -राधा माही सिंह

कौन जानता है!

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जाने अंदर क्या छिपा है? सब मुंह पर राम बोल जाते है। पीठ पीछे खंजर भोक जाते है। जाने किसके अंदर क्या छिपा है? सब सामान्य है, सामान्य है। कह - कह कर, हमारा हर रोज हक लूट जाते है। दरअसल इसकी आदत तो हम घर से ही दिलाई जाती है। अब चाहे घर के सभी फैसले चाहे हम कर ले, मगर लड़का/लड़की अक्सर पिता जी का पसंद का ही होता है। अब होना भी लाजमी है,क्योंकि उनके पिता जी ने भी तो यही किया है। सब अपने है। बस ये दिखाते है। जी सही ही तो बोला मैंने। कि सब दिखाते ही तो है। वरना कौन जानता है? किसका जान कौन मांगता है? अब कल कि ही तो बात है। अनजाने थे हम कुछ साल पहले।  अब कई अरसो से हम एक दूसरे की जान है। मगर जिसने जन्म दिया वो आज मेरे हालातों से अनजान है। कौन जानता है? किसके मुंह में राम है? और किसके मुंह पे राम है? या जाने किसने कितना गमों के समंदर में खुदको नहल्या है। या आज भी पाप को गंगा में धो कर आया है? कौन जानता है। किसके अंदर क्या है?             - राधा माही सिंह

एक दौर

एक दौर यह भी रहा ज़िंदगी में। जहां टूट जाने पर लोगो ने लूट लिया। एक दौर यह भी रहा ज़िंदगी में। जहां अपनों की हर बात कड़वी और दूसरो की चापलूसी मीठी लगी। एक दौर यह भी रहा ज़िंदगी में। जहां रिश्ते हमने पैसों से कई बना लिया,मगर मां - बाप  बना नही सका। एक दौर यह भी रहा जिंदगी में। जहां डिग्रिया तो बहुत कमाई। मगर किस्मत अजमा लिया,और डिग्रिया पड़ी रह गई। एक दौर यह भी रहा ज़िंदगी में। जहां झूठ जीत गया और सच मोन रहा, और सबने "मुझे" गुनहागर भी मान लिया। एक दौर यह भी रहा ज़िंदगी में। उतार चढ़ाओ बहुत देखे और सुना भी हमने। मगर खुदको हर जगह से नाकामयाब होते भी देख लिया। एक दौर यह भी रहा ज़िंदगी में। सब कुछ चुप-चाप सहना सीखा लिया।                 - राधा माही सिंह