Posts

Showing posts from January, 2023

कुछ ना मेरा।

ना घर मेरा। ना द्वार मेरा। ना संसार मेरा। मां ने बोला पराए घर को जाना है। मैने भी मान लिया चलो वो ही सही वो घर मेरा। जब गई उस घर को,उस घर ने कहा पराई घर से आई हूं। मैने यह भी मान लिया चलो पराई ही सही भला आई ही तो हूं। ना प्यार मेरा। ना घर में कोई दीवार मेरा। संसार में बस एक अबला पहचान मिला। पिता ने हाथ जब भी थामा,उन्होंने सिखाया संस्कार मेरा। जब पति ने थामा हाथ मेरा उठा दिया चरित्र पर दाग़ मेरा! ना घर मेरा। ना द्वार मेरा। मैने एक बनाई भी आशियाना। बच्चे पूछते क्या काम मेरा? मैं संभल कर रही,कुछ रिश्तों को संभालते रही। बहन ने दे दिया मतलबी का खिताब मेरा। ना पति मेरा। ना पिता मेरा। ना मां का स्नेह मेरा। जब घर बाटा पिता,ने बस रह गया कुछ चौथाई मेरा। जहां शायद आज भी मेरे बचपन के कुछ तस्वीरे लटके हो सकते है! ना हद मेरा। ना बेहद मेरा। ना कोई रंग मेरा। ना छांव मेरा। मैं मोह में डूबी ममता मेरा। ना गजरा मेरा। ना सुरमा मेरा। मैं व्रत भी करू और वह वर्त का फल भी ना हो सका मेरा। ना संसार मेरा। ना मोह मेरा। गहनों की ढेर में रह गया बस जज़्बात मेरा। ना पद मेरा। ना अधिकार मेरा। हम सब के हो कर रह गए। मगर क

कभी कभी

कभी-कभी ना एक दम से हार जाती हूँ। कभी खुद से तो कभी अपनी ही हालातो से। कभी कभी तो समझ में नहीं आता की लडू किस से? खुद के ही जज्बातों से? या खुद में खुट रही सैलाबो से? कभी-कभी ना एक दम से हार जाती हूँ। कभी-कभी तो समझ में नहीं आता लडू किस से ? खुद के सवालों से? या खुद के ही ख्वाबों के तरानों से? या फिर महंगे ख्वाब लिए आंखो के धारों से? कभी- कभी ना मन घबरा सा जाता है। समझ में नहीं आता की लिखूं खुद को क्या? जी लूं वो बेपाक बचपना? या सिख लूं हस कर हर दुःख को छुपाना? या फिर छोड़ दूं किसी से यह उम्मीद  रखना। कि वो इज्जत से बोलेगा। कोई ना लगे रहो! मंजिले नहीं मिली तो क्या? अनुभव को जुगाड़ती जाओ। सपने देखने भर से क्या? हुआ पूरा तो थी। वरना वो ख्वाब ही क्या? कभी-कभी एक दम से हार जाती हूंँ। कभी खुदको तो कभी हालातों से उलझ कर ही रह जाती हूँ।            - राधा माही सिंह