कुछ ना मेरा।

ना घर मेरा।
ना द्वार मेरा।
ना संसार मेरा।
मां ने बोला पराए घर को जाना है।
मैने भी मान लिया चलो वो ही सही वो घर मेरा।
जब गई उस घर को,उस घर ने कहा पराई घर से आई हूं।
मैने यह भी मान लिया चलो पराई ही सही भला आई ही तो हूं।
ना प्यार मेरा।
ना घर में कोई दीवार मेरा।
संसार में बस एक अबला पहचान मिला।
पिता ने हाथ जब भी थामा,उन्होंने सिखाया संस्कार मेरा।
जब पति ने थामा हाथ मेरा उठा दिया चरित्र पर दाग़ मेरा!
ना घर मेरा।
ना द्वार मेरा।
मैने एक बनाई भी आशियाना।
बच्चे पूछते क्या काम मेरा?
मैं संभल कर रही,कुछ रिश्तों को संभालते रही।
बहन ने दे दिया मतलबी का खिताब मेरा।
ना पति मेरा।
ना पिता मेरा।
ना मां का स्नेह मेरा।
जब घर बाटा पिता,ने बस रह गया कुछ चौथाई मेरा।
जहां शायद आज भी मेरे बचपन के कुछ तस्वीरे लटके हो सकते है!
ना हद मेरा।
ना बेहद मेरा।
ना कोई रंग मेरा।
ना छांव मेरा।
मैं मोह में डूबी ममता मेरा।
ना गजरा मेरा।
ना सुरमा मेरा।
मैं व्रत भी करू और वह वर्त का फल भी ना हो सका मेरा।
ना संसार मेरा।
ना मोह मेरा।
गहनों की ढेर में रह गया बस जज़्बात मेरा।
ना पद मेरा।
ना अधिकार मेरा।
हम सब के हो कर रह गए।
मगर कोई ना हुआ मेरा।
हम हदों को पार कर,सजाए भी कुछ हिस्सों को।
ना वो हिस्सा मेरा।
ना जग मेरा।
ना संसार मेरा।
     - राधा माही सिंह

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