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रिश्ते

मेरे पिता जी अक्सर कहा करते है। जब बात रिश्तों की हो तो वहा हमेशा झुक जाना ही उच्चित है। मगर अब भला रिश्तों में क्या उच्चित और क्या अनुचित है? बस-अब एक बोझ सा लगा होता है सामने वाले पर की जाने सामने वाला किस बात पर आप से दृष्ट हो जाए? लोग लहजे और लिहाज की फिकर नही करते। अब रिश्ते भी उनके कपड़ों की  पसंद जैसे है। बेहतर और बेहतरीन की किसको पड़ी है? भला ये वक्त में साथ है कल तो चले ही जाना है। रिश्तों की किन्हें पड़ी है? बस यहां सभी मतलब के तलब गार है। "ईद,बकरीद, होली दिवाली" यहां तक की चैत्र, भादो सब आता है। गर मजाल हो इन पर "मन"अकेला आया हो! देखना तो सब को अपना - अपना ही है। फिर जाने क्यों,कोई रिश्तेदार है? मेरे पिता कहते है। रिश्ते से बड़ा ना कोई संसार है। रिश्तों में ही प्यार है। प्रेम का दूसरा नाम ही परिवार है। अब तब से मेरे मन में एक भेद छुपा है। परिवार का मतलब सिर्फ खून वाला हिस्सा नही। जरूरी है,मन को भी मिलना। मगर यह माना सिर्फ मेरे पिता की है। हमने अभी संसार देखना है।              - राधा माही सिंह