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बन्द दरवाजे

कमरे के बन्द दरवाजे कई राज बोल रहे है। कई मुद्दत से खोली नही गई उन्हें, या बात बोल रहे है। यह हम नही उनके आंखो के नीचे पड़ी काली रात बोल रहे है। चाहे तो छुपा सकता था वो। मगर बन्द कब तक रहता?  ये हम नहीं उनके  जजब्त बोल रहे है। कि आज भी वो मैखाने में पाए जाते है अक्सर। ये हम नही,उनके हालात बोल रहे है। यूं तो कमी नहीं है उन्हे दोस्तो की मगर,आज-कल उनकी आंखे सारे दहलीज लांघ रहे है। कमरे में पड़ी एक डायरी भी है,जो रौशनदान मांग रहे है। कब तक धूल का पहरा रहेगा उस पर? वो भी किसी की पनाह मांग रहे है। कि मुर्शद तुम्हारे घर के दरवाजे अब नया मका चाह रहे है।                               राधा माही सिंह 

बचपन वाला त्यौहार नहीं आता।

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Picture credit :- @shutterstock.com  वो बचपन वाला त्यौहार नहीं आता। शनिवार तो आता है, मगर अब इतवार नही आता।  अब वो बचपन वाली मेला का व्यापार नही आता।       हर बार तारीख़ तो आता है,मगर अब वो गर्मी और      ठंडी की छुट्टी वाला माह नही आता। जिन्दगी अब तनख्वा के पीछे तो भाग रही है।  मगर अब वो पिताजी से मिलने वाली एक रुपए  का शान नही आता। शनिवार तो आता है मगर अब इतवार नही आता। "नानी मां"का कॉल आया था कल रात, मुझसे पूछ रही थी आने को! मैंने बोला तो है, जाने को। मगर अब कैसे कहूं उनको ? कि अब वो इंतजार ना किया करे हमारा।  क्योंकि बिता हुआ साल वापस नही आता। अब हर बार रविवार नही आता। गर्मी, जाड़े की छुट्टी वाली माह नही आता। अब वो सुकून वाली शाम नही आती। शनिवार तो आता है,मगर अब इतवार नही आता। अब बचपन वाला अब त्यौहार नहीं आता।                         - राधा माही सिंह