बन्द दरवाजे

कमरे के बन्द दरवाजे कई राज बोल रहे है।
कई मुद्दत से खोली नही गई उन्हें, या बात बोल रहे है।
यह हम नही उनके आंखो के नीचे पड़ी काली रात बोल रहे है।
चाहे तो छुपा सकता था वो।
मगर बन्द कब तक रहता?
 ये हम नहीं उनके  जजब्त बोल रहे है।
कि आज भी वो मैखाने में पाए जाते है अक्सर।
ये हम नही,उनके हालात बोल रहे है।
यूं तो कमी नहीं है उन्हे दोस्तो की मगर,आज-कल उनकी आंखे सारे दहलीज लांघ रहे है।
कमरे में पड़ी एक डायरी भी है,जो रौशनदान मांग रहे है।
कब तक धूल का पहरा रहेगा उस पर?
वो भी किसी की पनाह मांग रहे है।
कि मुर्शद तुम्हारे घर के दरवाजे अब नया मका चाह रहे है।

                             राधा माही सिंह 

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