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बेटियाँ।

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अरे-अरे ये क्या फिर से हुआ है खेल देह व्यपार का। खड़ा देख रहा हिमालय अपने हिस्से का अधिकार का। बक बुड़बक ई हम कह रहे है। इतो "काननू कह रहा है।" अभी इंतज़ार करो सात साल का। "निर्भय मरी तो क्या हुआ?" "रेडी भी मरी तो क्या हो गया?" यहाँ तो आधीन है जनता "सरकार" का। कोयला घोटाला सामने आ रहा है। निर्दोषों का घर तोड़ा जा रहा है। पग-पग कानून ही हमारी मांस खा रहा है। तो क्या हुआ बस एक लड़की ही तो मेरी है। थोड़े पहाड़ टूट गया है। जो कोतहाल मचाए हो बेतुके बातों पर सवाल उठाए हो। यहाँ तो खून कानून कर जा रहा है। गरीबों का हिज़्र बेच खा रहा है। अब हर "माँ-बाप" को चिंता शता रहा है। और ई जो "बेटी पढ़ाओ-बेटी बचावे" के नारा लगा रहे हो। तो सुनो उन्ही नारो में कुचली जा रही है "बेटियाँ" दिन प्रतिदिन मोमबत्ती की मोम जैसे मिटती जा रही है बेटियां। अच्छा हुआ जो भून हत्या पढ़ गया वरना किस घर जन्म लेती ये बेटियां। अरे मर्दे बात करते हो फाँसी पर चढाई देवे ओकरा के? तो तनी रुको,इन्तेजार तो करो "सात साल का"।          ✍🏽 राधा माही सिंह उ

घर ही तो टूटा है।

महल नही छोटा ही सही एक घर ले-लोना। देखो अब और नही दो कमरे ना सही कम से कम शहर में एक कमरे ही खड़ा कर दो ना। ना जाने कितने रात जगे? ना जाने कितने भूख मरे? तब जा कर खड़ा हुआ था एक कमरा। कई साल बीते,कई जतन किए तब बना था एक मकान।ना जाने कितने शौख़ मरे तब जा कर एक मकान घर बना। ना जाने कितने आश टूटे तब जा कर एक घर स्वर्ग बना। की आज कुछ ऐसा हुआ। सरकारी फरमान से सपना टूट कर रह गया। सासे थम कर रह गई। जब अपने ही घर मे बस एक कौना रोने को रह गया। पिताजी ने अपना किरदार निभाते हुए कहा। अरे संभलो "नलायको" घर ही तो टूटा है। अभी हौसला नही टूटा। सपनो का क्या है?फिर नई देखेंगे अभी नज़रे नही फूटा। हलांकि मैं भाप रही थी उनकी बातों को।  वो अंदर ही अंदर टूट रहे थे मैं जान रही थी उनकी जज्बातों को। वो अंदर ही-अंदर घुट रहे थे। अपने आशुओ को छिपा रहे थे।  मुझसे नज़रे चुरा रहे थे। और हिमत जुटा कर  उन्होंने कहा। हौसला रखो बुलन्द कामयाबी तुम्हारी क़दमे चूमेगी। बस "घर ही तो टूटा" तुम नही। खुली समान है। मेरा वक़्त बीत है,तुम्हारा नही। मिल कर दौड़ेनेगे बस तुम घबराना नही।      -राधा माही सिंह

तू था।

तू था मेरा मुकम्मल इश्क़ का फ़रियाद। तू सुकून था मेरा। की था तू ही आख़िरी आरज़ू। तन्हाईयो से लिपटी हुई वो शोर था। जिसे पागलो सी तलाशती थी खुद में। मगरूरी था मेरा तू की था मेरा हौसला। जिसे ढूंढती थी दुनिया वो मचलती हुई समा था। मेरी हर सफर का मंज़िल तू था। की मेरी हर मुराद की आर्दश तू था। मेरा होना तु था। मेरा गवारा तू था।  मेरा सजना, स्वर्णा तू था। मेरी हकीकत तु था। मेरी सब-सब-सब कुछ तू था। की आख़िरी तमन्नाओ में दफ़न भी तू था। मेरी कहानियों की शब्दो मे लिपटी हुई जज्बातों के डोर में तू था। की मेरी,मुझमें मेरी हर सास में तू था। यू तो मुझ में फ़नहा थे कई सच तुम्हारे मगर मेरे  चहरे पर मुस्कुराता निशा तु था। अब करु क्या इस ज़माने में मैं अकेली रह कर? तुम तो हो मगर हम में नही। हम तो है मगर तुम में नही। वक़्त वही है मगर उस क़्क़त में अब तुम नही। चलते तो है पर साथ नही। कटती तो है मगर अब रात नही। बात वही है मगर ज़िक्र में अब हम नही। मैं भी वही हूँ तुम भी वही हो मगर ना जाने वो समा कहा खो सा गया है। जहॉ मैं तुम्हारी थी और तुम मेरे।  लगता है वो सूरज अब डूब सा गया है!          -राधा माही सिंह