तू था।

तू था मेरा मुकम्मल इश्क़ का फ़रियाद।
तू सुकून था मेरा।
की था तू ही आख़िरी आरज़ू।
तन्हाईयो से लिपटी हुई वो शोर था।
जिसे पागलो सी तलाशती थी खुद में।
मगरूरी था मेरा तू की था मेरा हौसला।
जिसे ढूंढती थी दुनिया वो मचलती हुई समा था।
मेरी हर सफर का मंज़िल तू था।
की मेरी हर मुराद की आर्दश तू था।
मेरा होना तु था।
मेरा गवारा तू था।
 मेरा सजना, स्वर्णा तू था।
मेरी हकीकत तु था।
मेरी सब-सब-सब कुछ तू था।
की आख़िरी तमन्नाओ में दफ़न भी तू था।
मेरी कहानियों की शब्दो मे लिपटी हुई जज्बातों के डोर में तू था।
की मेरी,मुझमें मेरी हर सास में तू था।
यू तो मुझ में फ़नहा थे कई सच तुम्हारे मगर मेरे  चहरे पर मुस्कुराता निशा तु था।
अब करु क्या इस ज़माने में मैं अकेली रह कर?
तुम तो हो मगर हम में नही।
हम तो है मगर तुम में नही।
वक़्त वही है मगर उस क़्क़त में अब तुम नही।
चलते तो है पर साथ नही।
कटती तो है मगर अब रात नही।
बात वही है मगर ज़िक्र में अब हम नही।
मैं भी वही हूँ तुम भी वही हो मगर ना जाने वो समा कहा खो सा गया है।
जहॉ मैं तुम्हारी थी और तुम मेरे।
 लगता है वो सूरज अब डूब सा गया है!
         -राधा माही सिंह

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