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समझो ना

          समझो ना! मेरी ख़ामोशी को तुम समझो ना! मैं कुछ कह नही सकती थोड़ी बेबश हूँ। मेरे अंदर की तड़पन को देखो ना! खगालो खुदको भी एक बार। एक बार मुड़ कर देखो ना! मेरी ख़ामोशी को तुम समझो ना! बेताहाशा मुझे तुमसे मोहब्बत है। चाहो तो तुम परखों ना। सुनो ना....! कई दफा मैंने तुझको सम्भाल है। अब तुम भी आकर मुझको संभालो ना। की कई अर्षो से ख़ामोश पड़ी है मेरी आँखे। अब तुम्ही इन्हें बताओ ना! की ना तड़पा करे यू किसी अज़नबी के लिए। हम थक चुके है खुदमे खुद से ही। अब तुम समझ जाओ "या"आकर समझा जाओ ना।                  - राधा माही सिंह

तुम और मैं।

तुम कॉफ़ी तो मैं चाय हूँ। तुम शहर तो मैं गाँव हूँ। तुम फ़िशलन पानियो सा तो मैं ठहरती हुई कंकड़ हूँ। तुम तराशे खुदा के हो मैं भेजी माली की दास हूँ। तुम बरश्ते काले बादल तो मैं बून्द हूँ। भटकती हूँ दर-बदर अब ना जाने किसकी प्यास हूँ? तुमने तो अधुरी छोड़ी है कहानी। अब ना जाने किसकी अल्फ़ाज़ हूँ? तुम बिरहा के राग तो मैं बैरागी धुन हूँ। तुम कहानी तो मैं गों (भुलाई) कहानियों की किरदार हूँ। तुम शहर रंग्रेज़ों की मैं अनपढ़ देहात हूँ। तुमने बिसराया है मेरे आँखों की काजल को। मैं तड़पती हुई लाज हूँ। तुम शहर के अंग्रेजी बाबू। तो मैं बिहारन  गवार  हूँ। तुम गोता सागर हो तो मैं गंगा की धारा हूँ।             -राधा माही सिंह