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Showing posts from May, 2021

कभी हुआ करती थी

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समझ लेना मैं कभी बीते सालों की एक आख़िरी माह हुआ करती थी। समझ लेना मैं कभी  समन्दर की प्यासी लहरें हुआ करती थी। समझ लेना मैं कभी गुजरे हुए इश्तिहार में कोई उफ़नती हुई स्नाटेदार  ख़बर हुआ करती थी। समझ लेना मैं कभी ना मनाई जाने वाली त्योहार हुआ करती थी। समझ लेना मैं कोई नई गली में पुरानी मकान हुआ करती थी। समझ लेना मैं कभी तनख्वाह की आधी हिसाब हुआ करती थी। समझ लेना कभी हुआ करती थी।                 -राधा माही सिंह

एक पिता

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                     एक पिता आओ तुम्हें एक और ज़िन्दगी से रूबरू करवाती हूँ। मैं एक बार फिर से एक कहानी सुनाती हूँ। की आधी-फटी हाल उस तन की बात सुनती हूँ। चलो आज एक बार फिर एक पिता की याद दिलाती हूँ। कि माघ,आसीन, कातिक,अगहन भी शीश झुकाती है। एक पिता की बेजुबाँ मोहब्बत के आगे ममता भी कहाँ टिक पाती है? इति से लेकर बीती तक कि भाषाऐ ममता की लोरिया गाती है। सो जाते है बच्चे शायद यह भी दिखलाता है। कि कोई समझाओ उन ग्रन्थि से लेकर भावनाओं की भाषा जो समझ नही पता है। कि बिना पिता की मुख देखे उस बच्चे को नींद भला कहाँ आती है? तारो में उंगलियां तब तक उलझी-उलझी सी रहती है ज़िद पूरा हो कर भी आधुरी सी रहती है। कहि हो कर भी नही होने का अहसास मुझको खलती है। कि जब तक सुन ना लू मेरे पिताजी की आवाज तब तलक मेरी दिन भी काली रात सी रहती है।         -राधा माही सिंह

महज़ सब ख़ाक ही तो है।

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Picture credit- Mahipal Singh  बस एक निशान ही तो है। महज़ सब तूर ख़ाक ही तो है। वो मेरा है,वो मेरा ही रहेगा! यह बस उलझी-उलझी सी सवाल ही तो है? यह ज़िन्दगी बस एक कारवा ही तो  है। हर रोज़ मिलते है नये चहरो से,मगर उनके चहरे का तस्वीर इन आँखों मे महफूज़ आज भी तो है। बेतहाशा तलब थी पाने की उन्हें यह ख़्वाब महज़  एक ख़्वाब आज भी तो है। क्या हुआ जो वो कारवा गुज़र गया? इन रेतो पर पड़ी छाप खिल-खिला रही आज भी तो है। मोहब्बत की इल्म,चाहतों की शौख महज़ तूर ख़ाक ही तो है। वो मेरा है,मेरा ही रहेगा! यह उलझी-उलझी सी सवाल ही तो है।           -राधा माही सिंह

तलाश किसी बेहतर की

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हम आज भी ना जाने किस बेहतर की तलाश में निकल जाते है? ना मंज़िल होता है,ना पता होता है। मगर अक्सर ही किसी के दरवाजे से खाली हाथ लौट कर आ जाते है। किसी बेहतर की तलाश में हम अक्सर किसी अच्छे को किसी अंधेर रस्ते मे छोड़ आते है।  कई बार तो हम खुद ही खुदके घर का पता भी भूल जाते है। किसी बेहतर का पता ढूंढते-ढूंढते "दो" पहर बीत जाती है। कि अक्सर किसी बेहतर की तलाश में हम किसी अच्छे को भूल जाते है। अब कभी लौटना हुआ करता है तब-जब मंज़िल की इमारते साफ नजर आती है। मगर रिश्तों की महीन डोर कहाँ किसे नजर आती है? हम फिर से मुसाफिर हो जाते है,जब चाहत में कमी नज़र आती है। हर रोज निकल जाते है,किसी बेहतर से बेहतरीन के तलाश में मगर जाने अनजाने ही सही किसी अच्छे की दिल टूट कर बिखर जाती है।  मगर हमारी आदते कहाँ जाती है? हम आज भी ना जाने किस बेहतर के तलाश में निकल जाते है?                           -राधा माही सिंह