तलाश किसी बेहतर की

हम आज भी ना जाने किस बेहतर की तलाश में निकल जाते है?
ना मंज़िल होता है,ना पता होता है।
मगर अक्सर ही किसी के दरवाजे से खाली हाथ लौट कर आ जाते है।
किसी बेहतर की तलाश में हम अक्सर किसी अच्छे को किसी अंधेर रस्ते मे छोड़ आते है। 
कई बार तो हम खुद ही खुदके घर का पता भी भूल जाते है।
किसी बेहतर का पता ढूंढते-ढूंढते "दो" पहर बीत जाती है।
कि अक्सर किसी बेहतर की तलाश में हम किसी अच्छे को भूल जाते है।
अब कभी लौटना हुआ करता है तब-जब मंज़िल की इमारते साफ नजर आती है।
मगर रिश्तों की महीन डोर कहाँ किसे नजर आती है?
हम फिर से मुसाफिर हो जाते है,जब चाहत में कमी नज़र आती है।
हर रोज निकल जाते है,किसी बेहतर से बेहतरीन के तलाश में मगर जाने अनजाने ही सही किसी अच्छे की दिल टूट कर बिखर जाती है। 
मगर हमारी आदते कहाँ जाती है?
हम आज भी ना जाने किस बेहतर के तलाश में निकल जाते है?
                          -राधा माही सिंह

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