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Showing posts from June, 2020

मोहब्बत मुकम्मल होते।

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हमने देखा है, मोहब्बत को मुकम्मल होते। हमने देखा है, दो जिस्म-एक जान होते। हमने देखा है, मैं को हम होते। हमने देखा है, विस्तर पर पड़ी सलवटों को गुन-गुनते। हमने देखा है,किसी दिवाने को सुबह की चाय शाम को पिते। हमने देखा है,तमाम दूरियों के बावजूद भी नज़दीकियों को बढ़ते। हमने देखा है, मोहब्बत को मुकम्मल होते।                   -राधा माही सिंह

दिल

खो ना दु तुम्हे इस बात से डरता था दिल। दूर ना हो जाऊं तुम से इस सोच में सहम जाता था दिल। तेरी खुशीयो की ख़्तिर खुदा से भी लड़ जाता था दिल। और हुआ भी कुछ ऐसा ही तुम्हारी खुशियो के ख़्तिर आज भी चूप रह जाता है दिल।          - राधा माही सिंह

पिता और उनकी यादे

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कैसे बयां करू-"करुना" के सागर को?  कभी माँ तो कभी अपार ममता की शक्ति को?  सबने माँ के ऊपर कुछ ना कुछ लिखा था। यह देख कर मेरा जी मचल उठा और मै भी आज कलम उठाई एक पिता की महानता लिखने को। मगर अहसास हुआ सागर में जिस प्रकार मोतीयो का कोई मोल नही अपने ख़राश मिटा पाने को। सीने से लिपट गई अपने पिता जी के, सोची अब बुझेगी मेरी प्यास "अमृत"को पाने की। मगर धड़कन से चिरती हुई "धधकती" ज्वाला निकल रही थी। सन्तान मोह में लिपटी एक छोटी सी आस,और वो यह था अपने जीवन को त्याग हम सब की जीवन को बनाने का। तलब और ना जगी,आँखे भर आईं,कलम ने साथ छोड़ दिया और कहा "क्या लिखेगी पगली इस रवानी को?" जब कि ब्रम्भा जी भी समझना सके एक पिता की कुर्बानी को,और तू लिखने चली है उनकी कहानी को। मैं थराई और पिता जी की माँ के चरणों के पास बैठ गई तब उन्होंने मेरे बालो पर अपने हाथो को फिरोते हुए कहा " मैं समझ गई तुम्हारी दुबिधा को" आओ मेरे पीछे-पीछे आओ। इतने में वो गई अपने सायंकक्ष में और एक पुरानी सी शन्दूक से बहुत ही पुरानी व खुबशुरत सी तसवीर निकली जिसमे मेरे पिता की आयु लग-भग मेरे जि