पिता और उनकी यादे

कैसे बयां करू-"करुना" के सागर को?
 कभी माँ तो कभी अपार ममता की शक्ति को?
 सबने माँ के ऊपर कुछ ना कुछ लिखा था।
यह देख कर मेरा जी मचल उठा और मै भी आज कलम उठाई एक पिता की महानता लिखने को।
मगर अहसास हुआ सागर में जिस प्रकार मोतीयो का कोई मोल नही अपने ख़राश मिटा पाने को।
सीने से लिपट गई अपने पिता जी के, सोची अब बुझेगी मेरी प्यास "अमृत"को पाने की।
मगर धड़कन से चिरती हुई "धधकती" ज्वाला निकल रही थी।
सन्तान मोह में लिपटी एक छोटी सी आस,और वो यह था अपने जीवन को त्याग हम सब की जीवन को बनाने का।
तलब और ना जगी,आँखे भर आईं,कलम ने साथ छोड़ दिया और कहा "क्या लिखेगी पगली इस रवानी को?" जब कि ब्रम्भा जी भी समझना सके एक पिता की कुर्बानी को,और तू लिखने चली है उनकी कहानी को।
मैं थराई और पिता जी की माँ के चरणों के पास बैठ गई तब उन्होंने मेरे बालो पर अपने हाथो को फिरोते हुए कहा " मैं समझ गई तुम्हारी दुबिधा को"
आओ मेरे पीछे-पीछे आओ।
इतने में वो गई अपने सायंकक्ष में और एक पुरानी सी शन्दूक से बहुत ही पुरानी व खुबशुरत सी तसवीर निकली जिसमे मेरे पिता की आयु लग-भग मेरे जितना होगी चहरे पर एक तेज़ और मुस्कुराहटों लब-लबती हुई  खुबशुरत सा सवाली तस्वीर थी मगर एक बात कचोट रही थी मन को।
 जो मेरे पिता जी के बगल में बैठे शख्स थे आज वासी हालात है मेरे पिता की।
"यह कैसे बिडम्बना है"?
फिर मेरी अथक प्रयास अधूरी रह गई।
मैं मेरे प्रश्नों को खुद में समेटी और वहाँ से चल दी।
कुछ कदम बढ़ी ही थी कि आहटों ने सिसकियों का रूप ले लिया, तलब यह था उस कमरे में जा कर देख आऊ।
और इसी उलशा के साथ मेरी कदम में बढ़ते जा रहीं थी।
जयो-जयो मेरी क़दम आगे बढ़ रहा था,त्यों-त्यों सवालों का सैलाब उमड़ रहा था।
अतः मैं उस कमरे के बाहर आ खड़ी हुई जहाँ  अंधेरा सा था।
"मानो"किसी बन्द डाबे से यादे तड़प रही थी,चार दिवारिओ से आवाजे आ रही थी " कोई है.....? मुझे बाहर निकालो.... कोई है.....? क्या मुझे कोई सुन सकता है?  मुझे घुटन हो रही है क्या कोई मुझे निकाल सकता है इस कमरे से?"
इन सभी आवाजो को मैं और ना सुन सकी वहाँ से दबे पाओ भाग खड़ी हुई और अपने भाई के कमरे में जा कर किसी कोने में खड़ा हो गई,और उसे देखने लगी नज़रे मेरी कहि ठहर ही नही रही थी बार-बार, लगातार उसे देखे जा रहा था शायद यह मेरे पिता का दर्द था जो मेरे आँखों से बयां होते चला गया।
बस तलब जगी पिता जी का रिन्द को चुकाऊ।
मगर सवाल यह उठा क्या उनकी त्याग को कभी चुका पाऊंगी?
उनकी बचपन कभी वापस ला-पाऊँगी?
               - राधा माही सिंह

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