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Showing posts from January, 2020

साल बदले

साल बदले और उस दरमियान इंसान बदले, वादे टूटे खुदा भी रूठे। पठार की तरह थी हाथो की लकीरें जो पत्थर बन खड़े हुए एक माँ थी जो कभी ना बदली वही रूटिंग था और आज भी रहा है। अब ना जाने खुदा ने उन्हें किस मिटी का मूर्त बना रखा है। दर्दो को चुप-चाप से सहती और किसी से कुछ ना कहती उस दरमियाँ कुछ हो जाए मुझको तो अपने हक का भी दुआ मेरे झोली में दान दे-देती लाखो रुपए को दवाईओ के बाद एक बार नजरो को जरूर है उतरती। अब क्या कहूँ माँ के बारे में जो मुझे शब्द बनाई है उन्हें किस शब्दो से नावजू जो मुझे चलना सिखाई है।     - राधा माही सिंह

अकेली हूँ।

अकेली हूँ इस सफर में अब कोई हम सफर चाहिए। थक चुकी हूँ इस जिंदगी से अब कुछ पल सुकू चाहिए। अपनो के बस्ती बचाते-बचाते खुद की कश्ती डूब गई है बीच मझधार में अब कोई किनारा चाहिए।  अकेली हूँ इस सफर में अब कोई हम सफर चाहिए। भूल गई हूं घर का पता अपना अब मुझको मेंरी इस ख़ता का सजा चाहिए। अकेली हूँ इस सफर में अब कोई हम सफर चाहिए। नही चल सकती इस भीड़ भरी रस्तो में अब मुझको खाली पन चाहिए। अकेली हूँ सफर में अब इस सफर में हम सफर चाहिए।    -राधा माही सिंह

अब और नही।

दर्द है तेज़ अब और नही सहा जाएगा। तुम से दूर अब और नही रहा जाएगा। कम्बख्त मौत क्यों नही आ जाती मुझको अब ना जाने किस कदर से रुसवाई तड़फएगा। मुर्दे भी नही जलेगी मेरी जब तलक वो मुझको हाथ ना लगाएगा। दर्द है तेज़ अब और नही सहा जायगा। यह बरश्ते बादल की घटा कब जाने मेरे आँखों से दूर जाएगा। ज़ख्म है गहरा अब दावा भी ना काम आएगा। और पता नही कब खुदा मुझको अपने दर पर बुलाएगा। दर्द है तेज़ अब और नही सहा जाएगा। हस्ते मुस्कुराते सबो से मिला करती हूँ मगर अब यह सील-सिला यही थम जाएगा। अब शायद फिर से सब कुछ बदल जाएगा। दर्द है तेज़ अब और नही सहा जाएगा।     - राधा माही सिंह

मैं.वो स्त्री हूँ।

मैं हर एक वो तन्हाइयों का हिस्सा बन जाती हूँ। मैं वो स्त्री हूँ जो रातो का किस्सा बन जाती हूँ। मैं वह निव्सस्त्र स्त्री हूँ जो हर किसी के बिस्तर में पाती हूँ। सुबह से बैर रखती हूँ रातो से याराना गहरा रखती हूँ। मैं वो तन्हाई हूँ जो खुद में घुट कर रह जाती हूँ। मैं वो स्त्री हूँ जो किसी के बिस्तर पे पाई जाती हूँ। चन्द रुपयों के लिए हाँ, मैं बिक जाती हूँ मगर ईमान नही बेच  खाती हूँ। तन से मन से प्रपंचो से भी तोली जाती हूँ। मैं वो स्त्री हूँ जो गैरो को भी अपनाती हूँ। दागों से भरा है हिज़रा मेरा मगर ममता का प्यार लुटाती हूँ। मैं वो स्त्री हूँ जो दागों से पहचानी जाती हूँ। छली है आँचल मेरा मगर सौ दर्दो को छुपाती हूँ। मैं वी काली रात हूँ जो अमावस के रात नज़र में आती हूँ। बस रात का खेल तमाश बिन बन जाती हूँ। मैं हर एक वो तन्हाइयों का हिस्सा बन जाती हूँ। मैं वो निव्सस्त्र स्त्री हूँ जो हर किसी के बिस्तर का हिस्सा बन जाती हूँ।           -राधा माही सिहं