साल बदले
साल बदले और उस दरमियान इंसान बदले, वादे टूटे खुदा भी रूठे।
पठार की तरह थी हाथो की लकीरें जो पत्थर बन खड़े हुए एक माँ थी जो कभी ना बदली वही रूटिंग था और आज भी रहा है।
अब ना जाने खुदा ने उन्हें किस मिटी का मूर्त बना रखा है।
दर्दो को चुप-चाप से सहती
और किसी से कुछ ना कहती उस दरमियाँ कुछ हो जाए मुझको तो अपने हक का भी दुआ मेरे झोली में दान दे-देती लाखो रुपए को दवाईओ के बाद एक बार नजरो को जरूर है उतरती।
अब क्या कहूँ माँ के बारे में जो मुझे शब्द बनाई है उन्हें किस शब्दो से नावजू जो मुझे चलना सिखाई है।
- राधा माही सिंह
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