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संकट

अज़ीब धर्म संकट में-मैं पड़ी हूँ मेरे मोल्ह। ना 'आह" कर सकती हूँ। और नाही उफ्फ तक कर सकती हूँ। देखे जा रही हूँ अब-बस देखे जा रही हूँ जब तलक देख सकती हूँ। अपने ही हाथो से भला कौन अपना ही हिज़्र तबाह करता है? मैं तो महज़ राही हूँ। ना ठहराव जरूरी है। और नही ठहर सकती हूँ। अज़ीब बेवशी है मेरे मोल्ह। मन परेशान है,चहरे को अंदाज़ नही। मायुषि है दिल पर मगर इन सासों को इल्म तक नही। ना सुलझी हूँ और नाही दूर तलक उलझी हूँ। समझती हूँ सारी बातों को मगर ना जाने क्यों "बेबाग" बनी बैठी हूँ। शायद कलेज चाहिए अपने आप को बर्बाद करने को। मगर हम तो बगैर कलेज रखे हर ग़म को अपने नाम की हूँ। फ़क़त एक पन्नो पर उतरती हूँ। तो कभी "कलम" से चुभोई जाती हूँ। मैं वो अहसास हूँ। जो बस दिल तक लिप्त कर रह जाती हूँ।                -राधा माही सिंह