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Showing posts from July, 2022

कि अब कुछ है ही नही है।

कुछ अधूरी सी बाते।  कुछ हद तक राते। चुरा कर ले जाती है। और कुछ गलत फैमिया रिश्तों को भगा कर ले जाती है। कुछ सिल - सिला प्यार को साबित करता है। तो कुछ मुसलसल सब तबाह करने को ही आती है। आखों में लगी हर काजल सुर्ख वाली नही होती। कुछ काजल काले चोटों को छुपाने के लिए भी लगाई जाती है। किसी के साथ का मुलाकात कभी यह त्य नही करती। कि वो बात आखिरी हो। कभी - कभी हालत सब बता जाता है। हम चाहे कितना भी उम्मीद कर ले। मगर उम्मीद बस इतना समझता है। कि जिसकी तमन्ना लिया हम बैठे है। उस चांद के लिए कई ओर भी है जो हाथो पे कलेजा लिए घूमते है। मसला "कुछ बात या फिर कुछ हद की नही है।" कि बात कुछ ऐसी है। "कि अब कुछ है ही नही है।"              -राधा माही सिंह

घर वालो की याद

आज घर वालो की बहुत याद आ रही है यार। लग रहा,जैसे कई अरसो से मिली ही नही। मगर पिछले  दिवाली ही तो हम मिले थे ना। मां की हाथो की नरम,मुलायम रोटियां और कुछ मीठी गालियां भी तो खाई थी ना। घर से निकलते वक्त पिता जी ने कुछ रुपया भी हाथो में थमाया था । ज्यादा खर्च ना करू यह भी समझाया था। बड़ी बहन ने बखूबी प्यार लुटाया था। कोई परेशानी हो अगर उसे पहले याद करू यह कह कर कई कसमें भी खिलाया था। भाई तो बस स्टैंड तक छोड़ने भी आया था। फिर ये हलचल क्यों है? घर जाने की फिर ज़िद क्यों है? घर से निकली हूं घर को बनाने ही। ना जाने "बन पाएगा या नही?" जाने ये उलझन क्यों है? आज ये आंखे मेरी नम क्यों है? ये दिल में इतना हलचल क्यों है? घर जाने की फिर ज़िद क्यों है?                -राधा माही सिंह

कैसे?

मैं उन्हें समझाऊं तो समझाऊं कैसे? उनके आंखो में तो देखा भी नहीं जाता और नज़रे चुराया भी नही जा सकता। इस राज को खुद में दफनाऊ तो दफनाउ कैसे? अगर चुरा भी लूं निगाहें उनसे तो उन्हे समझाऊं कैसे? गर वो रूठ जाए तो मनाऊं कैसे? कि मैं उन्हे समझाऊं तो समझाऊं कैसे? अब तो जाया भी नही जाता उस गली में। मगर बिना जाए रहा भी नही जा सकता। कि हाले दिल बताऊं तो बताऊं कैसे? लगा है चोट इस दिल पर की जख्मों को छुपाऊ कैसे? कि मैं उन्हे समझाऊं तो समझाऊं कैसे? उलझनों में पड़ी ये राते बिताऊ तो बिताऊं कैसे? गर वो रूठ जाए तो मनाऊं कैसे?            - राधा माही सिंह 
काफिरों को खुदा मिला। मुसाफिरों को सहारा। जब बारिश आई शहर में, तो डूब गया घर हमारा। हर जगह मची थी त्राहि मैने समझा साथ तुम्हारा। जब आई इस उम्मीद से दहलीज पर तुम्हारे मगर तुम रख ना सके मान हमारा। काफिरों को खुदा मिला। मुसाफिरों को मिला सहारा। जब लगी आग बस्ती में,तब घर जल गया हमारा। जब बचा कुछ नही तो हमने याद किया उन्हे। उन्होंने कह दिया क्या रिश्ता है हमारा और तुम्हारा? काफिरों को खुदा मिला। मुसाफिरों को मिला मंजिल। जब आई मेरी बारी,मुकर गया खुदा हमारा।                   -राधा माही सिंह 

महाफुज़ नही।

महफूज थी मैं मेरे पिता के आंगन में। ये जमाना तो खोखली है। जो सिर्फ कहती तो है। कि नारी हमारी शान है। अब घर की बहुत याद सताती है। लौट जाऊ घर को। अब यह हालात बताती है। कोई गम का साया छू नही पता था।  जब तलक मां का अंचल था सर पे। मगर अब तो मुसाफिरो की हर बात कलेजे को डहकाती है। शेरनी थी।  जब तक मैं मेरे भाई की पड़ी कदमों के निशा पर चलती थी। कि आज डर सा लगता है। कोई कदम बढ़ने में। कि अब यह कहने में। जरा भी हिचक नहीं है मुझ में। कि जब से घर से निकली हूं । महाफूज नही हूं मैं।           -राधा माही सिंह 

कोशिश

एक नई ज़िंदगी की शुरुआत करने की कोशिश। तमनाओ के शहर को आग लगा ने की कोशिश। एक बार फिर से खुद से भागने की कोशिश। एक नई चाहतों, एक नया जोश के साथ पुराने यादों को दफनाने की कोशिश। एक नई ज़िंदगी जीने की ख्वाइश लिए। अपने पुराने शहर को छोड़ने की कोशिश। अपने यादों के पिटारो में, कुछ गम तो कुछ खुशियों को समेटने की कोशिश। हर दफा, हर मरतबा, हर हाल में हमने कोशिश किया है। कि उस राज से खुदको दूर रखने की कोशिश। कि अधूरे "चाहते" लिए "जिए" जाने की कोशिश। गम को खुद में घोल कर जहर पीने की कोशिश। थक कर ना हारने की कोशिश। उलझनों में भी कि चलते रहने की कोशिश। मालूम है ना होने का कुछ भी। मगर हो जायेगा सब कुछ मेरा यह भ्रम में भी जीने की कोशिश। बस कोशिशें और जिन्दगी भर की कोशिश। कि बेहतर से बेहतरीन करने की कोशिश।                       - राधा माही सिंह 

मजबूरी

मजबूरियों से बंध कर एक इश्क था हमारा। था कभी "सिर" चढ़ कर दिवानगी उनको मेरी। तलब अब वो "सिला" ना रहा। वो हर रोज "थोड़ा - थोड़ा" बदलते गए। हम "ना समझी - समझ" कर उन पर मरते गए। था बस इतना रहम की वो ना जाने "किस बात पर बदल गए।" और हम फिकर में आज भी है "कि वो जाने क्यूं?" बदल गए। था बेइक्तियारी इतनी "तो कह देते।" बेशक हम "मजबूरियों"को तो नही। मगर जरूर तुम्हारे हाथो को थामे रखते। कि इतना भी बदल जाना "क्या जरूरी रही होगी।" जरूर उनकी भी अपनी कोई "मजबूरी" रही होगी।