महाफुज़ नही।

महफूज थी मैं मेरे पिता के आंगन में।
ये जमाना तो खोखली है।
जो सिर्फ कहती तो है।
कि नारी हमारी शान है।
अब घर की बहुत याद सताती है।
लौट जाऊ घर को।
अब यह हालात बताती है।
कोई गम का साया छू नही पता था।
 जब तलक मां का अंचल था सर पे।
मगर अब तो मुसाफिरो की हर बात कलेजे को डहकाती है।
शेरनी थी।
 जब तक मैं मेरे भाई की पड़ी कदमों के निशा पर चलती थी।
कि आज डर सा लगता है।
कोई कदम बढ़ने में।
कि अब यह कहने में।
जरा भी हिचक नहीं है मुझ में।
कि जब से घर से निकली हूं ।
महाफूज नही हूं मैं।
          -राधा माही सिंह 

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