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Showing posts from August, 2021

कहानी

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मैं मेरे कहानी में बना हूँ कोल्हू का बैल कि खुदा जाने कब तक चलूँगा। कि मंजिल के तलब में निकल पड़े है कोसो दूर की अब खुदा ही जाने की मंजिल कब मिलेगा? कि अपने किरदारो को खुद लिख रहा हूँ मैं। आज-कल अपने दर्दो को खुद ही सील रहा हूँ मैं। अब खुदा जाने की इस शरीर को जख्मों से रुखसत कब मिलेगा? यू तो मिलता हूँ अक्सर मुस्कुराते हुए  लोगो से, तो उन्हें लगता है कि "क्या ज़िन्दगी" जी रहा हूँ मैं! कि अब उन्हें कौन भला समझाए? की मुश्किल होता है जीते जी खुदको मार देना,मगर अब माहिर हो गया हूँ मैं। कि हर रोज खुद का ही क़ातिल हो गया हूँ मैं। कि आईने को देखे बिना भी सवरने लगा हूँ मैं। समय के पीछे भाग रहा हूँ लगता है समझदार हो गया हूँ मैं। अब दीपावली नही रुलाती है मुझको,शायद मर्द हो गया हूँ मै। कि अब होली पर ना भी जाऊ घर तो होली ठीक-ठाक ही गुज़र जाती है,शायद ज़िम्मेदार हो गया हूँ मैं। ना जाने किस मदहोश शायर ने कहा था? कि जब बाप की चपल बेटे को होने लग जाये तो दोस्त बन जाते है,शायद मैं ग़लत हूँ मगर यह पंक्तियाँ ग़लत है यह दावे के साथ कह सकता हूँ मैं। "कि मैं जब पहली बार पहना था अपने पिता

बेटी होना अब ऐब सा लगता है।

कि अब बेटी होना मुझको ऐब सा लगने लगा है। चाँद पर लगने वाली ग्रहण अब ज़िंदगी में लगने सा लगा है। कभी टूटी नही थी इस क़दर। कि अब हर वक़्त,हर लम्हा,हर पल मुझको तोड़ने सा लगा है। और लोग बात करते है,की सपनो का महल खड़ा करू। कि अब उन्हें कौन बताए की अब बजार में "लड़की"होने का "स्टंप" भी मिलने लगा है। कि हम ले तो ले "सास" मगर अब इन "सासों" का किराया भी लगने लगा है। कि अब घुटन सा होता है मुझे मेरे ही शरीर में होकर। कि अब बेटी होना पाप सा लगने लगा है। "फटी जीन्स और कटी किस्मत" नसीब से मिलता है,अब हक़ीक़त सा लगने लगा है। कि मिडिल क्लास की छोरी होना जंजाल सा लगने लगा है। कि सूर्य ग्रहण अब हर रोज ही घर पर लगने लगा। कि बेटी होना अब ऐब सा लगने लगा है। दहेज़ का मार अब चोट नही देता,प्यार में ठुकराया हुआ शरीर बोझ नही लगता।  कि बस "नाम"जब भी आता है। मगर पहचान पहले मेरी लड़की से ही होता है। तब ग्रहण का कलंक मेरे माथे पर आप रूपी मढ जाता है। तब कुछ और नही लगता है। बस अब बेटी होना ऐब सा लगता है। कि मानो बेटी होना जैसे ज़िन्दगी का सौदा सा लगता है। कि बेटी होना

एक तुम हो कि

मैं युही बेवजह बुला लिया करती हूँ माँ को,लाख व्यस्तता होने के बावजूद भी चली आती है। एक तुम हो कि मेरे लाख बुलाने पर भी नही आते हो। मैं युही बेवज़ह रूठ जाया करती हूँ अपने दोस्तो से,तमाम गीले शिकवे भूल कर मनाने चले आते है। एक तुम हो कि मेरे नाराजगी तक को समझने पर समय जाया नही करते हो। मैं यूँही कभी-कभार उठ कर कहीं दूर किनारे पर बैठ जाया करती हूँ महफ़िलो से,हजारों चमकते चहरों को,छोड़ कर मेरे पिता आ कर मुझे गले से लगा लेते है। एक तुम्हे है कि फ़र्क भी नही पड़ता मेरे होने या ना होने से। ख़ैर शिकायत नहीं है मेरी तुमसे बस ईल्तेहा है। मुझे मुझ जैसा ही प्यार करो तुम भी यही तमन्ना है।                    _राधा माही सिंह