एक तुम हो कि
मैं युही बेवजह बुला लिया करती हूँ माँ को,लाख व्यस्तता होने के बावजूद भी चली आती है।
एक तुम हो कि मेरे लाख बुलाने पर भी नही आते हो।
मैं युही बेवज़ह रूठ जाया करती हूँ अपने दोस्तो से,तमाम गीले शिकवे भूल कर मनाने चले आते है।
एक तुम हो कि मेरे नाराजगी तक को समझने पर समय जाया नही करते हो।
मैं यूँही कभी-कभार उठ कर कहीं दूर किनारे पर बैठ जाया करती हूँ महफ़िलो से,हजारों चमकते चहरों को,छोड़ कर मेरे पिता आ कर मुझे गले से लगा लेते है।
एक तुम्हे है कि फ़र्क भी नही पड़ता मेरे होने या ना होने से।
ख़ैर शिकायत नहीं है मेरी तुमसे बस ईल्तेहा है।
मुझे मुझ जैसा ही प्यार करो तुम भी यही तमन्ना है।
_राधा माही सिंह
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