ऐ ज़िंदगी
ऐ ज़िंदगी, तू मुझे कहीं दूर ले चल,
जहाँ बस मैं और तू ही रहें।
ले चल मुझे उस फ़िज़ा में,
जहाँ किसी की कोई तलब न रहे।
गर मैं रहूँ ख़ामोश, तो तुम मेरे शब्दों को समझ जाना,
मैं कहूँ बहुत कुछ, तो तुम मेरी गहराईयों को छू लेना।
ऐ ज़िंदगी, अब हम तुम्हारे ही मोहताज़ हैं,
सबने सहारे छिना हैं।
हम तिनके-तिनके के लिए तड़पी हूँ।
तू ले चल मुझे वहाँ,
जहाँ तेरे आगोश में सर रखकर कुछ पल सुकून का सो सकूँ,
और इस जहाँ को एतराज़ भी न हो।
जहाँ मैं कह सकूँ, तू सुन सके,
मैं रो सकूँ, तू हँसा सके,
कोई बंदिश न हो,
कोई हमें झुठला न सके।
ऐ ज़िंदगी, तू मिलना किसी मुसाफ़िर की तरह,
जो मैं कहूँ और तू न जा सके।
मैं बाँधू तुझे अपने डोर से,
तू सिसक सके, मैं बिलख सकूँ।
मैं रूठ सकूँ, तू मना सके,
बस यूँ ही चलता रहे ये सिलसिला।
तू ले चल मुझे वहाँ,
जहाँ कोई न जा सके।
- राधा माही सिंह
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