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अब बस डर लगता है।

अब इंसानों से इस कदर से डरने लगे है हम। कि हर चहरे में कोई साज़िश लगता है। तमाशा मैं क्या देखू? मेरी जिन्दगी का हर घड़ी अब तमाशा लगता है। मुकद्दर बदलने चले थे हम अपना। मगर इंसानों ने सोच बदल डाला है। मेरे ही घर में रह कर। मेरे ही घर को जला डाला है। गलतियां तो हमारी है। कि हम ही भरोसा कर लेते है हर बात पर। यह भूल कर की वो इंसान है।          - राधा माही सिंह 

ऐ बनारस

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मांँ-पिता

किसीने  मांँ लिखा । तो किसीने ममता लिख कर सब कुछ बोल दिया। जब आई बारी मेरी तो मैने पिता लिखा,कर छोड़ दिया। आगे का शब्द ब्रह्मा जी ने खुद ही जोड़ दिया। सभी ने प्रेम को मांँ का रूप दिया। मैने त्याग को पिता का पहचान दिया और दे कर छोड़ दिया। फिर ब्रह्मा जी ने पिता का नाम दिया। सभी ने हर सुख-दुःख में  मां ढूंढा। मैं ढूंढी अपने पिता को। आगे ब्रह्मा जी ने मेरी सारी उलझनो को टाल दिया। किसी ने संस्कार की "देवी" मांँ को मान लिया। मैने "संसार" का जनक माना पिता को। आगे ब्रह्म जी ने वरदान दिया। सबने माना मांँ ने संभाला गर जो घर को। मैने माना घर का बल को थाम लिया जो पिता ने। आखिर में मैने लिखा "मांँ" को। अगर हुए वो नाराज़ तो पिताजी, मां ने उनको भी संभल लिया। फिर कहा ब्रह्मा ने भी। कि एक स्त्री जो जग की पालन हार है। भला उसके बलिदान के समक्ष कहां कुछ चल पाएगा? मैंने भी यह मान लिया। जब भी घिर संकट में, मैंने। पालन हार,और करता दोनो का ही नाम लिया।               - राधा माही सिंह

चाय के बाद।

मेरी इत्र की महक भी तुम हो। मेरे ग़ज़ल की "ल्फज़" भी तुम हो। मेरी शायरी की डायरी भी तुम हो। मेरे नजर के "नज़राना" भी तुम हो। मेरी हर एक राज का "अल्फाज़" भी तुम हो। मेरे गुरुर का अंदाज भी तुम हो। मेरी प्रारंभ भी तुम हो। मेरे अंत भी तुम हो। मेरे उत्सवों के रंग भी तुम हो। मेरे आंगन में बने रंगोली भी तुम हो। तेरे होने से जग है। तेरे होने से हम है। मेरी सासो में तुम हो। मेरे पलकों पे तुम हो। मेरी गीतो के आसार भी तुम हो। या - यूं कहूं कि एक चाय के बाद जिसे मैंने आखिरी पसंद बनाया वो तुम हो। अब और क्या कहूं की तुम क्या हो?            _ राधा माही सिंह