मांँ-पिता

किसीने  मांँ लिखा ।
तो किसीने ममता लिख कर सब कुछ बोल दिया।
जब आई बारी मेरी तो मैने पिता लिखा,कर छोड़ दिया।
आगे का शब्द ब्रह्मा जी ने खुद ही जोड़ दिया।
सभी ने प्रेम को मांँ का रूप दिया।
मैने त्याग को पिता का पहचान दिया और दे कर छोड़ दिया।
फिर ब्रह्मा जी ने पिता का नाम दिया।
सभी ने हर सुख-दुःख में  मां ढूंढा।
मैं ढूंढी अपने पिता को।
आगे ब्रह्मा जी ने मेरी सारी उलझनो को टाल दिया।
किसी ने संस्कार की "देवी" मांँ को मान लिया।
मैने "संसार" का जनक माना पिता को।
आगे ब्रह्म जी ने वरदान दिया।
सबने माना मांँ ने संभाला गर जो घर को।
मैने माना घर का बल को थाम लिया जो पिता ने।
आखिर में मैने लिखा "मांँ" को।
अगर हुए वो नाराज़ तो पिताजी, मां ने उनको भी संभल लिया।
फिर कहा ब्रह्मा ने भी।
कि एक स्त्री जो जग की पालन हार है।
भला उसके बलिदान के समक्ष कहां कुछ चल पाएगा?
मैंने भी यह मान लिया।
जब भी घिर संकट में, मैंने।
पालन हार,और करता दोनो का ही नाम लिया।
              - राधा माही सिंह

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