आखिरी शब्द

कुछ शब्दों के मर्यादाओं में हम भी उलझ कर रह गए।
तो कुछ हमारी कहानी किसी मोड़ पर आ कर रुक गई।
मुसलसल मसला यह नहीं है, कि कौन कहां तक और कब तलक साथ दिया है किसी का

हर बार किसी ना किसी को दोस्ती,प्रेम और ना जाने कई रिश्तों के नाम पर छला गया।
शब्दों का मानो अम्बार हो, सवालों का कोई समंदर हो, या मानो काली घटा से छट कर एक बूंद आ गिर हो ज़मी पर।

देखते ही देखते लेखक का कहना कुछ और बातों से जोड़ा गया।

किरदार लिखना चाहता था, मगरिबी का, मगर माथे आया फ़कत गरीबी का, कोई ना सुना ना समझा और एक दीवार खड़ा हुआ।

फिर क्या हुआ?


लेखक एक रोज आपने कमरे में पाया गया।
था नब्ज़ चलता तो हकीम को भी बुलाया गया।
हकीम का मर्ज था पैसा, उसे पैसा भी दिलाया गया।
मगर लेखक को था जाने की जल्दी, उसने मांग की एक महफिल की ।

फिर क्या था ?

एक बार फिर से महफिल लगाया गया, उसकी माशूका को भी बुलाया गया।
जब लेखक देखा हाथों में मेंहदी अपने माशूका के, उससे - उसको अश्रु ना छुपाया गया।

फिर क्या था?

पहले सांस थमा, आँखें आखिरी दीदार की रुसवाई मांगी और फिर कलेजा बाहर को आ गया।
जो आखिरी बूंद बचे थे अश्रु के वो अंगिया पर जा गिरा।

"बेचारा" कुछ पल और ठहरता यह भी अनुमान लगाया गया।
फिर क्या था?
उसके साथ- साथ उसके आखरी शब्दों को भी जलाया गया।
था जिस ओर देखता उस ओर से माशूका को हटाया गया।
लेखक तो चला गया।

मगर मगरिबी का सवाल यह था।
कि क्यों उसके किरदार को इतना शताया गया?
- राधा माही सिंह

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