मजबूरी

मजबूरियों से बंध कर एक इश्क था हमारा।
था कभी "सिर" चढ़ कर दिवानगी उनको मेरी।
तलब अब वो "सिला" ना रहा।
वो हर रोज "थोड़ा - थोड़ा" बदलते गए।
हम "ना समझी - समझ" कर उन पर मरते गए।
था बस इतना रहम की वो ना जाने "किस बात पर बदल गए।"
और हम फिकर में आज भी है "कि वो जाने क्यूं?" बदल गए।
था बेइक्तियारी इतनी "तो कह देते।"
बेशक हम "मजबूरियों"को तो नही।
मगर जरूर तुम्हारे हाथो को थामे रखते।
कि इतना भी बदल जाना "क्या जरूरी रही होगी।"
जरूर उनकी भी अपनी कोई "मजबूरी" रही होगी।

Comments

Popular posts from this blog

जिद्द

अच्छा लगता है।

एक दौर