मैं.वो स्त्री हूँ।

मैं हर एक वो तन्हाइयों का हिस्सा बन जाती हूँ।
मैं वो स्त्री हूँ जो रातो का किस्सा बन जाती हूँ।
मैं वह निव्सस्त्र स्त्री हूँ जो हर किसी के बिस्तर में पाती हूँ।
सुबह से बैर रखती हूँ रातो से याराना गहरा रखती हूँ।
मैं वो तन्हाई हूँ जो खुद में घुट कर रह जाती हूँ।
मैं वो स्त्री हूँ जो किसी के बिस्तर पे पाई जाती हूँ।
चन्द रुपयों के लिए हाँ, मैं बिक जाती हूँ मगर ईमान नही बेच  खाती हूँ।
तन से मन से प्रपंचो से भी तोली जाती हूँ।
मैं वो स्त्री हूँ जो गैरो को भी अपनाती हूँ।
दागों से भरा है हिज़रा मेरा मगर ममता का प्यार लुटाती हूँ।
मैं वो स्त्री हूँ जो दागों से पहचानी जाती हूँ।
छली है आँचल मेरा मगर सौ दर्दो को छुपाती हूँ।
मैं वी काली रात हूँ जो अमावस के रात नज़र में आती हूँ।
बस रात का खेल तमाश बिन बन जाती हूँ।
मैं हर एक वो तन्हाइयों का हिस्सा बन जाती हूँ।
मैं वो निव्सस्त्र स्त्री हूँ जो हर किसी के बिस्तर का हिस्सा बन जाती हूँ।
          -राधा माही सिहं

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