अकेली हूँ।
अकेली हूँ इस सफर में अब कोई हम सफर चाहिए।
थक चुकी हूँ इस जिंदगी से अब कुछ पल सुकू चाहिए।
अपनो के बस्ती बचाते-बचाते खुद की कश्ती डूब गई है बीच मझधार में अब कोई किनारा चाहिए।
अकेली हूँ इस सफर में अब कोई हम सफर चाहिए।
भूल गई हूं घर का पता अपना अब मुझको मेंरी इस ख़ता का सजा चाहिए।
अकेली हूँ इस सफर में अब कोई हम सफर चाहिए।
नही चल सकती इस भीड़ भरी रस्तो में अब मुझको खाली पन चाहिए।
अकेली हूँ सफर में अब इस सफर में हम सफर चाहिए।
-राधा माही सिंह
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