एक पिता

                
   एक पिता
आओ तुम्हें एक और ज़िन्दगी से रूबरू करवाती हूँ।
मैं एक बार फिर से एक कहानी सुनाती हूँ।
की आधी-फटी हाल उस तन की बात सुनती हूँ।
चलो आज एक बार फिर एक पिता की याद दिलाती हूँ।
कि माघ,आसीन, कातिक,अगहन भी शीश झुकाती है।
एक पिता की बेजुबाँ मोहब्बत के आगे ममता भी कहाँ टिक पाती है?
इति से लेकर बीती तक कि भाषाऐ ममता की लोरिया गाती है।
सो जाते है बच्चे शायद यह भी दिखलाता है।
कि कोई समझाओ उन ग्रन्थि से लेकर भावनाओं की भाषा जो समझ नही पता है।
कि बिना पिता की मुख देखे उस बच्चे को नींद भला कहाँ आती है?
तारो में उंगलियां तब तक उलझी-उलझी सी रहती है ज़िद पूरा हो कर भी आधुरी सी रहती है।
कहि हो कर भी नही होने का अहसास मुझको खलती है।
कि जब तक सुन ना लू मेरे पिताजी की आवाज तब तलक मेरी दिन भी काली रात सी रहती है।
        -राधा माही सिंह



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