घर ही तो टूटा है।

महल नही छोटा ही सही एक घर ले-लोना।
देखो अब और नही दो कमरे ना सही कम से कम शहर में एक कमरे ही खड़ा कर दो ना।
ना जाने कितने रात जगे?
ना जाने कितने भूख मरे?
तब जा कर खड़ा हुआ था एक कमरा।
कई साल बीते,कई जतन किए तब बना था एक मकान।ना जाने कितने शौख़ मरे तब जा कर एक मकान घर बना।
ना जाने कितने आश टूटे तब जा कर एक घर स्वर्ग बना।
की आज कुछ ऐसा हुआ।
सरकारी फरमान से सपना टूट कर रह गया।
सासे थम कर रह गई।
जब अपने ही घर मे बस एक कौना रोने को रह गया।
पिताजी ने अपना किरदार निभाते हुए कहा।
अरे संभलो "नलायको" घर ही तो टूटा है।
अभी हौसला नही टूटा।
सपनो का क्या है?फिर नई देखेंगे अभी नज़रे नही फूटा।
हलांकि मैं भाप रही थी उनकी बातों को। 
वो अंदर ही अंदर टूट रहे थे मैं जान रही थी उनकी जज्बातों को।
वो अंदर ही-अंदर घुट रहे थे।
अपने आशुओ को छिपा रहे थे।
 मुझसे नज़रे चुरा रहे थे।
और हिमत जुटा कर  उन्होंने कहा।
हौसला रखो बुलन्द कामयाबी तुम्हारी क़दमे चूमेगी।
बस "घर ही तो टूटा" तुम नही।
खुली समान है।
मेरा वक़्त बीत है,तुम्हारा नही।
मिल कर दौड़ेनेगे बस तुम घबराना नही।
     -राधा माही सिंह

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