बेटियाँ।

अरे-अरे ये क्या फिर से हुआ है खेल देह व्यपार का।
खड़ा देख रहा हिमालय अपने हिस्से का अधिकार का।
बक बुड़बक ई हम कह रहे है।
इतो "काननू कह रहा है।" अभी इंतज़ार करो सात साल का।
"निर्भय मरी तो क्या हुआ?"
"रेडी भी मरी तो क्या हो गया?"
यहाँ तो आधीन है जनता "सरकार" का।
कोयला घोटाला सामने आ रहा है।
निर्दोषों का घर तोड़ा जा रहा है।
पग-पग कानून ही हमारी मांस खा रहा है।
तो क्या हुआ बस एक लड़की ही तो मेरी है।
थोड़े पहाड़ टूट गया है।
जो कोतहाल मचाए हो बेतुके बातों पर सवाल उठाए हो।
यहाँ तो खून कानून कर जा रहा है।
गरीबों का हिज़्र बेच खा रहा है।
अब हर "माँ-बाप" को चिंता शता रहा है।
और ई जो "बेटी पढ़ाओ-बेटी बचावे" के नारा लगा रहे हो।
तो सुनो उन्ही नारो में कुचली जा रही है "बेटियाँ" दिन प्रतिदिन मोमबत्ती की मोम जैसे मिटती जा रही है बेटियां।
अच्छा हुआ जो भून हत्या पढ़ गया वरना किस घर जन्म लेती ये बेटियां।
अरे मर्दे बात करते हो फाँसी पर चढाई देवे ओकरा के?
तो तनी रुको,इन्तेजार तो करो "सात साल का"।
         ✍🏽 राधा माही सिंह
उद्देश्य:- कविता के माध्यम से यह बताना है कि कानून व्यवस्था कितनी घटिया होते जा रही है।
जिससे महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए उसी को दर किनार किया जा रहा है।

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