कभी कभी

कभी-कभी ना एक दम से हार जाती हूँ।
कभी खुद से तो कभी अपनी ही हालातो से।
कभी कभी तो समझ में नहीं आता की लडू किस से?
खुद के ही जज्बातों से?
या खुद में खुट रही सैलाबो से?
कभी-कभी ना एक दम से हार जाती हूँ।
कभी-कभी तो समझ में नहीं आता लडू किस से ?
खुद के सवालों से?
या खुद के ही ख्वाबों के तरानों से?
या फिर महंगे ख्वाब लिए आंखो के धारों से?
कभी- कभी ना मन घबरा सा जाता है।
समझ में नहीं आता की लिखूं खुद को क्या?
जी लूं वो बेपाक बचपना?
या सिख लूं हस कर हर दुःख को छुपाना?
या फिर छोड़ दूं किसी से यह उम्मीद  रखना।
कि वो इज्जत से बोलेगा।
कोई ना लगे रहो!
मंजिले नहीं मिली तो क्या?
अनुभव को जुगाड़ती जाओ।
सपने देखने भर से क्या?
हुआ पूरा तो थी।
वरना वो ख्वाब ही क्या?
कभी-कभी एक दम से हार जाती हूंँ।
कभी खुदको तो कभी हालातों से उलझ कर ही रह जाती हूँ।
           - राधा माही सिंह

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