बचपन

लड़कपन का अक्सर एक सवाल हुआ करता था।
जिसमे उलझ कर उंगलियो के साथ दिमागे भी आसमानों में ठहर जाया करता था और फिर से एक बार तारो को गिनने की अथक प्रयास में बार-बार हार हो जाता था।
यु उन्हें कही खो जाना पतंगों के पिछे दौड़ लगाना एक रुपये पाने पर अमीरों सा रुतबा दिखाना और दोस्तो के साथ अक्सर बचकानो सी कहानियाँ बनाना मानो भूत और उसकी प्यारी सी बीवी अपनी ही पिछले वाली कमरे में रही थी।
लड़कपन मे जवानी की भूख थी।
बचपन मे दिवानी की प्यास थी।
कई बार तो उसे दिखाने के वास्ते अपना ही "बेड़ा गर्ग हो जाया करता था" जब सवालों के जवाब ना आने पर पनिशमेंट दिया जाता था।
वो अक्सर ही गणित के समय बेसमेंट वाला प्यार याद आया करता था।
कॉपी के पन्नो में मयूर का पंख याद आता है की कैसे उस से विधाय पाने के लिए अक्सर ही ना जाने क्या क्या उपचार किया जाता था।
और जायज था हमारा अक्सर स्कूल में लेट हो जाना जिस से बेचारे प्रिंसीपल भी बेचारा हो जाया करता था।
पतंगों पे अक्सर नम्बर लिख कर ना जाने कौन कमबख़्त गिरा जाता था।
बड़ी को पटाने में अक्सर भारी पड़ जाया करता था। तो कभी राश्ते में गुलाब मिलना गालो में लाली पड़ जाता था। 
कुछ और समय बीतता की  मेरी आँखे खुल गई और मेरी डायरी के कुछ पन्ने अधूरी रह गई।
राजा-रानियाँ की कहानियाँ अब बचपन याद दिलाता है।
बैग में पड़ी पेन्सिल अब अंदर ही अंदर खाता है।
अब हर मोड़ पर बचपन  चिढ़ाता है।
जवानी की चाह में अब बुढापा याद आता है।

                  - राधा माही सिंह 


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