मैं
ना जाने किस मोड़ पर आ खड़ी हूँ मैं।
जहाँ अपने तो बहुत है,मगर वो अपने नही।
गज़ब सी बेगानी लगती है वो गलियां जब कि उन गलियों में मकान है मेरा।
हम गुजरे हुए वक़्त की तरह हुए जा रहे है।
इन झूठी मुस्कुराहटों के तले खुद को दबाते जा रहे है।
इन आँखों मे चमक मेरी आंसुओ की है,मगर हम उसकी क़ीमत भी "खोते" जा रही हूँ मैं।
सोचती हूँ शायद खुश हूँ मैं,मगर सच है लोगों को कम खुद को ज्यादा दिखाते जा रही हूँ मैं।
हर रोज़ मोमबत्ती की तरह घटते जा रही हूँ मैं।
-राधा माही सिंह
उद्देश्य की पूर्ति होनी चाहिए । प्रयास उत्तम है
ReplyDeleteकोशिश है बेहतर करने की
ReplyDelete