ये ज़िन्दगी
मचलती शामों की तरह होती है ये ज़िन्दगी।
और मृत्यु ढलती अमावश की रात।
बस इतना सा फासला होता है, सुख और दुःख में।
कहने पर सुख पहले आता है,और दुःख बाद में।
मगर हाकितक यही है,की दुःख के बाद सुख आता है।
हम भोग कर रहे हैं ज़िन्दगी का।
संभोग बाकी है,जिंदगी में।
काफी उतार चढ़ाव के बाद आता है ज़िन्दगी में एक ठहराव।
और उसके बाद का पड़ाव मृत्यु।
मृत शरीर का काफरा बस चार कंधों पर का होता है।
मगर उन्ही चार कंधों को इस लायक बनाने में ज़िन्दगीयाँ लग जाता है।
हम और आप तो केवल एक मनुष्य है।
मगर फिर भी सवाल बने हुए है।
कौन कहा तक पंहुचा?
उसे उतना क्यों मिला है?
मेरी किस्मत इतनी बुरी क्यों है?
खुद लेकर हम बैठ गए है।
अच्छा बुरा हम क्यों तय करे?
हम बस अपने कर्मो के अनुशरण फल मांगे तो कितना अच्छा होता।
आज ग़रीब भी दो वक़्त की रोटी और अच्छे मकानों में रहता।
हम भूल गए है इंसानियत की परिभाषा।
कितना अच्छा होता वही बचपन की ज़िन्दगी आज भी हमारे हक में होता।
ना "चोर गिरोह"दिलो में ना "प्रपंचो" से दिमाग़ होता।
कितना अच्छा होता।
अगर आज मचलती शाम सी ना बल्कि काली घटा सी ये जिंदगी होती।
एक बार बरश कर कहि खिलौनो सी खो जाती।
काश ये ज़िन्दगी के दो पल ही सही मगर हमारे हक में हो जाता।
मुक़दर किसे चाहिए था अमृत बस आश है कि "काफरा" जनाजे तक अपनो की हसी,खुशि विदा मिल पाता।
- राधा माही सिंह
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