जिद्द
अब वो शाम नही आता मेरे आंगन में। जिस रोज़ से तेरा जाना हुआ है। था ये कैसा जिद्द तुम्हारा आज शहर तुम्हारा अपना और गांव अनजाना हुआ है? आज बेगाना सारा जमाना हुआ है। जिस रोज से तेरा जाना हुआ है। कभी गिरते थे पत्ते झाड़ कर आंगन में। अब बसंत को भी बहना हुआ है। आखों में हर रोज रहता है सावन। भला सर्दी का कोई ठिकाना रहा है? जिस रोज़ से तेरा जाना हुआ है। था ये गुलशन बहार। आज सुखा - सुखा सा ये संसार हुआ है। जिस रोज से तेरा जाना हुआ है। था ये कैसा जिद्द तुम्हारा आज शहर तुम्हारा अपना और गांव अनजाना हुआ है। -राधा माही सिंह