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गैर

गैर के हाथों में हमने रखी थी अपनी खुशियों की चाबी। अपनों का दिल दुखाकर। कि हमसे ना पूछो कि मेरी ख़ता क्या है? बस पूछो कि मेरी ख़ता क्या-क्या हैं? अपनों को ही हमने ज़माने भर की ठोकरें दी हैं, और यह भी पता चला किसी गैर से ठोकरें खाकर। अगर कश्ती डूब जाती है किसी एक के न होने से, तो बेहतर था कि मैं डूब जाता। कि अब हमको ये जाने सितम रुलाती है रह-रहकर, कि गैरों की हिज्र में रोशनी देने का कारोबार था मेरा। कि एक रोज़ हमने अपने ही हाथों से अपने हिज़्र का दीपक बुझा डाला। ले जाओ मेरी तमन्नाओं को मुझसे दूर, कहीं ये मेरे आखिरी शब्द उसे कोई घाव न दे दें। मसला यह नहीं है कि वो मेरा नहीं हुआ, मसला यह है कि हम अपनों के न होकर कैसे सोच लिए कि कोई गैर मेरा अपना हो सकेगा? - राधा माही सिंह