बदलती परिस्थितियों में दुनिया का नज़ारा।
ना जाने ये खेल किसने खेला है। हर जगह लगा गम का मेला है। अब भरोसा करे किन पर ना जाने कौन अपना और कौन पराया है? चलते तो सब साथ है,मगर तनहाई से डूबे रंजदो का बेला है। ना जाने ये खेल किसने खेला है। वक़्त-वक़्त कह वक़्त सौतन बन आई है। सभी फासले खत्म और अपनों से दुर होने को बरीआई है। सर रख तो लू मौत के दामन में,मगर मौत समझए इस काबिल तो बेहतर है। ना जाने किसने ये जिंदगी का खेल बनाया है। जो जी-लिया समझो वही खिलाड़ी असली है। -राधा माही सिंह