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Showing posts from March, 2025

जाने क्यों ?

जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है, कि एक तुझे पा कर मेरी सारी अधूरी सी ख्वाहिश मुकम्मल हो जाएगी? जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है, कि तेरे दीदार भर से मेरी चाहतों की हंसरते पूरी हो जाएगी? जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है, कि तुम्हारे बाहों में उलझ कर मेरी उलझने कम हो जाएंगी? जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है, कि तुम्हारे छूने भर से मेरी बेचैनियाँ मर जाएंगी? जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है, कि मेरी हर बात तुम पर खत्म हो जाएंगी? जाने मुझे क्यों लगता है, कि तुम्हें पा लेने भर से मेरी हर जुस्तजू राबता हो जाएगी

आखिरी शब्द

कुछ शब्दों के मर्यादाओं में हम भी उलझ कर रह गए। तो कुछ हमारी कहानी किसी मोड़ पर आ कर रुक गई। मुसलसल मसला यह नहीं है, कि कौन कहां तक और कब तलक साथ दिया है किसी का हर बार किसी ना किसी को दोस्ती,प्रेम और ना जाने कई रिश्तों के नाम पर छला गया। शब्दों का मानो अम्बार हो, सवालों का कोई समंदर हो, या मानो काली घटा से छट कर एक बूंद आ गिर हो ज़मी पर। देखते ही देखते लेखक का कहना कुछ और बातों से जोड़ा गया। किरदार लिखना चाहता था, मगरिबी का, मगर माथे आया फ़कत गरीबी का, कोई ना सुना ना समझा और एक दीवार खड़ा हुआ। फिर क्या हुआ? लेखक एक रोज आपने कमरे में पाया गया। था नब्ज़ चलता तो हकीम को भी बुलाया गया। हकीम का मर्ज था पैसा, उसे पैसा भी दिलाया गया। मगर लेखक को था जाने की जल्दी, उसने मांग की एक महफिल की । फिर क्या था ? एक बार फिर से महफिल लगाया गया, उसकी माशूका को भी बुलाया गया। जब लेखक देखा हाथों में मेंहदी अपने माशूका के, उससे - उसको अश्रु ना छुपाया गया। फिर क्या था? पहले सांस थमा, आँखें आखिरी दीदार की रुसवाई मांगी और फिर कलेजा बाहर को आ गया। जो आखिरी बूंद बचे थे अश्रु के वो अंगिया पर जा गिरा। "बेचारा...