बहुत दिनो बाद एक खेल याद आई है।
फिर से मेरी बचपन की सहेलिया याद आई हैं। चॉक्लेट देने वाले अंकल भी देखो पास बुलाए है।
आज फिर से गुड़ा-गुड़िया का विवहा याद आई है।
-राधा माही सिंह
अब वो शाम नही आता मेरे आंगन में। जिस रोज़ से तेरा जाना हुआ है। था ये कैसा जिद्द तुम्हारा आज शहर तुम्हारा अपना और गांव अनजाना हुआ है? आज बेगाना सारा जमाना हुआ है। जिस रोज से तेरा जाना हुआ है। कभी गिरते थे पत्ते झाड़ कर आंगन में। अब बसंत को भी बहना हुआ है। आखों में हर रोज रहता है सावन। भला सर्दी का कोई ठिकाना रहा है? जिस रोज़ से तेरा जाना हुआ है। था ये गुलशन बहार। आज सुखा - सुखा सा ये संसार हुआ है। जिस रोज से तेरा जाना हुआ है। था ये कैसा जिद्द तुम्हारा आज शहर तुम्हारा अपना और गांव अनजाना हुआ है। -राधा माही सिंह
मुझे अच्छा लगता है। कभी - कभी हवाओं में रहना। मुझे अच्छा लगता है। यूं खुले बालों को झटकना। मुझे अच्छा लगता है। फूलों के संग बाते करना। मुझे अच्छा लगता है। खुले अस्मानो में सपनों को बुनना। मुझे अच्छा लगता है। किताबों को पढ़ना। मुझे अच्छा लगता है। खुदमे गुम रहना। मुझे अच्छा लगता है। प्रेम में हो कर भी आज़ाद रहना। मुझे अच्छा लगता है। हवाओं में रहना। मुझे अच्छा लगता है। तितलियों संग उड़ना। मुझे अच्छा लगता है। खुदको हर रंग में रंगना। मुझे अच्छा लगता है। खुदको लिखते रहना। मुझे अच्छा लगता है। संगीतो में घुलना। मुझे अच्छा लगता है। हवाओं के संग- संग बहना। -राधा माही सिंह
एक दौर यह भी रहा ज़िंदगी में। जहां टूट जाने पर लोगो ने लूट लिया। एक दौर यह भी रहा ज़िंदगी में। जहां अपनों की हर बात कड़वी और दूसरो की चापलूसी मीठी लगी। एक दौर यह भी रहा ज़िंदगी में। जहां रिश्ते हमने पैसों से कई बना लिया,मगर मां - बाप बना नही सका। एक दौर यह भी रहा जिंदगी में। जहां डिग्रिया तो बहुत कमाई। मगर किस्मत अजमा लिया,और डिग्रिया पड़ी रह गई। एक दौर यह भी रहा ज़िंदगी में। जहां झूठ जीत गया और सच मोन रहा, और सबने "मुझे" गुनहागर भी मान लिया। एक दौर यह भी रहा ज़िंदगी में। उतार चढ़ाओ बहुत देखे और सुना भी हमने। मगर खुदको हर जगह से नाकामयाब होते भी देख लिया। एक दौर यह भी रहा ज़िंदगी में। सब कुछ चुप-चाप सहना सीखा लिया। - राधा माही सिंह
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