बहुत दिनो बाद एक खेल याद आई है।
फिर से मेरी बचपन की सहेलिया याद आई हैं। चॉक्लेट देने वाले अंकल भी देखो पास बुलाए है।
आज फिर से गुड़ा-गुड़िया का विवहा याद आई है।
-राधा माही सिंह
ये पायल। ये झुमके। ये सब नहीं चाहिए मुझे। तुम जब भी आना तो एक आधा समय ले कर आना। जहां हम दोनों पूरी ज़िंदगी मिल कर गुजरेंगे। ये चॉकलेट। ये महंगे तोफे। इसके हम हकदार तो नहीं है। मगर तुम जब भी आना मेहरबान बन कर प्यार लूटना मुझ पर। हां माना मैं थोड़ी सी ज़िद्दी हूँ। मगर ये दिखाना। ये बात - बात पर जताना। नहीं चाहिए मुझको। तुम जब भी मेरे होना बेपाक इरादों से होना मुंतसर कुछ अधूरा सा ही होना मगर सच्चे इबादत से मेरा होना। मुझको नहीं चाहिए और कुछ भी। जब भी तुम आना मेरे लिए बस एक गुलाब और अपनी एक आधी जिंदगी ले कर आना जो मेरे संग बितानी हो। - राधा माही सिंह
उनकी आँखों के त्वरूफ़ हम क्या करें? हम खुद ही उनकी आँखों में गोता खाए बैठे हैं। गर कोई पूछे हमसे मुसलसल माजरा क्या है? सच तो यह है कि हम जान बुझ कर घर का रस्ता भुलाए बैठे हैं। क्या कहूँ? क्या लिखूँ उनकी आँखों के बारे में? हम अपना ईमान बचाए बैठे हैं। क्या ग़ज़ल? क्या पहल? और क्या दोपहर! उनकी आँखों का नशा हम कुछ इस तरह से लगाए बैठे हैं। जाने क्या अच्छा क्या बुरा हम उनकी आँखों में हर बार डूब जाने को तैयार बैठे हैं। - राधा माही सिंह
ऐ ज़िंदगी, तू मुझे कहीं दूर ले चल, जहाँ बस मैं और तू ही रहें। ले चल मुझे उस फ़िज़ा में, जहाँ किसी की कोई तलब न रहे। गर मैं रहूँ ख़ामोश, तो तुम मेरे शब्दों से समझ जाना, मैं कहूँ बहुत कुछ, तो तु मेरी गहराईयों को छू लेना। ऐ ज़िंदगी, अब हम तुम्हारे ही मोहताज़ हैं, सबने सहारे छिना हैं। तिनके-तिनके के लिए तड़पी हूँ। तू ले चल मुझे वहाँ, जहाँ तेरे आगोश में सर रखकर कुछ पल सुकून का सो सकूँ, और इस जहाँ को एतराज़ भी न हो। जहाँ मैं कह सकूँ, तू सुन सके, मैं रो सकूँ, तू हँसा सके, कोई बंदिश न हो, कोई हमें झुठला न सके। ऐ ज़िंदगी, तू मिलना किसी मुसाफ़िर की तरह, जो मैं कहूँ और तू न जा सके। मैं बाँधू तुझे अपने डोर से, तू सिसक सके, मैं बिलख सकूँ। मैं रूठ सकूँ, तू मना सके, बस यूँ ही चलता रहे ये सिलसिला। तू ले चल मुझे वहाँ, जहाँ कोई और ना जा सके। - राधा माही सिंह
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