कहानी
मैं मेरे कहानी में बना हूँ कोल्हू का बैल कि खुदा जाने कब तक चलूँगा। कि मंजिल के तलब में निकल पड़े है कोसो दूर की अब खुदा ही जाने की मंजिल कब मिलेगा? कि अपने किरदारो को खुद लिख रहा हूँ मैं। आज-कल अपने दर्दो को खुद ही सील रहा हूँ मैं। अब खुदा जाने की इस शरीर को जख्मों से रुखसत कब मिलेगा? यू तो मिलता हूँ अक्सर मुस्कुराते हुए लोगो से, तो उन्हें लगता है कि "क्या ज़िन्दगी" जी रहा हूँ मैं! कि अब उन्हें कौन भला समझाए? की मुश्किल होता है जीते जी खुदको मार देना,मगर अब माहिर हो गया हूँ मैं। कि हर रोज खुद का ही क़ातिल हो गया हूँ मैं। कि आईने को देखे बिना भी सवरने लगा हूँ मैं। समय के पीछे भाग रहा हूँ लगता है समझदार हो गया हूँ मैं। अब दीपावली नही रुलाती है मुझको,शायद मर्द हो गया हूँ मै। कि अब होली पर ना भी जाऊ घर तो होली ठीक-ठाक ही गुज़र जाती है,शायद ज़िम्मेदार हो गया हूँ मैं। ना जाने किस मदहोश शायर ने कहा था? कि जब बाप की चपल बेटे को होने लग जाये तो दोस्त बन जाते है,शायद मैं ग़लत हूँ मगर यह पंक्तियाँ ग़लत है यह दावे के साथ कह सकता हूँ मैं। "कि मैं जब पहली बार पहना था अपने पिता ...