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क्या इस जहां में

क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां तारे ज़मीन को चूमते होंगे? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां गगन भी अपने मगन में झूमते होंगे? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां बादल आकर मिट्टी की गोद में छुपते होंगे? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं,  जहां पानी की अपनी मिठास होगी? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां नीला अम्बर रहता होगा? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां समंदर में आग नहीं, बल्कि लहरें जलती होंगी? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां पिंजरों से आजाद पक्षी अपने घर को जाते होंगे? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां लोग खुलकर मुस्कुराते होंगे? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां लोग झूठे रिश्ते नहीं बनाते होंगे? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां तारों भरा एक आसमान होगा? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां दीवानों सा एक शायर होगा? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां कलमों की अपनी भाषाएं होंगी? - राधा माही सिंह 

आशा

तुम मुझे - मुझ जैसा ही चाहना। ये समुंदर, ये गहरी आंखों का तवजुब ना देना। सुनो, तुम मुझे - मुझ जैसा ही चाहना। मैं जैसी हूँ, जितनी हूँ, तुम्हारी ही हूँ। झील सी चंचल, मचलती हुई रागनी का कोई दावा ना देना। सुनो। तुम मुझे - मुझ जैसा ही चाहना। गर जो मैं हुई परिवर्तित। तो मैं मुझ से नहीं मिल पाऊंगी! मगर मिलना किसे है खुद से? मैं तुम में ही कही खो कर रह जाऊंगी। जब तने- बने से जी भर जाएगा,तो मुझे - मुझ में तुम्हारी तलाश रहेगी, इसलिए तुम मुझसे परिवर्तन का आश ना कर देना। सुनो ना। तुम मुझे - मुझ जैसी ही चाहना। - राधा माही सिंह 

तुम आना

ये पायल। ये झुमके। ये सब नहीं चाहिए मुझे। तुम जब भी आना तो एक आधा समय ले कर आना। जहां हम दोनों पूरी ज़िंदगी मिल कर गुजरेंगे। ये चॉकलेट। ये महंगे तोफे। इसके हम हकदार तो नहीं है। मगर तुम जब भी आना मेहरबान बन कर प्यार लूटना मुझ पर। हां माना मैं थोड़ी सी ज़िद्दी हूँ। मगर ये दिखाना। ये बात - बात पर जताना। नहीं चाहिए मुझको। तुम जब भी मेरे होना बेपाक इरादों से होना मुंतसर कुछ अधूरा सा ही होना मगर सच्चे इबादत से मेरा होना। मुझको नहीं चाहिए और कुछ भी। जब भी तुम आना मेरे लिए बस एक गुलाब और अपनी एक आधी जिंदगी ले कर आना जो मेरे संग बितानी हो। - राधा माही सिंह

जाने क्यों ?

जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है, कि एक तुझे पा कर मेरी सारी अधूरी सी ख्वाहिश मुकम्मल हो जाएगी? जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है, कि तेरे दीदार भर से मेरी चाहतों की हंसरते पूरी हो जाएगी? जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है, कि तुम्हारे बाहों में उलझ कर मेरी उलझने कम हो जाएंगी? जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है, कि तुम्हारे छूने भर से मेरी बेचैनियाँ मर जाएंगी? जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है, कि मेरी हर बात तुम पर खत्म हो जाएंगी? जाने मुझे क्यों लगता है, कि तुम्हें पा लेने भर से मेरी हर जुस्तजू राबता हो जाएगी

आखिरी शब्द

कुछ शब्दों के मर्यादाओं में हम भी उलझ कर रह गए। तो कुछ हमारी कहानी किसी मोड़ पर आ कर रुक गई। मुसलसल मसला यह नहीं है, कि कौन कहां तक और कब तलक साथ दिया है किसी का हर बार किसी ना किसी को दोस्ती,प्रेम और ना जाने कई रिश्तों के नाम पर छला गया। शब्दों का मानो अम्बार हो, सवालों का कोई समंदर हो, या मानो काली घटा से छट कर एक बूंद आ गिर हो ज़मी पर। देखते ही देखते लेखक का कहना कुछ और बातों से जोड़ा गया। किरदार लिखना चाहता था, मगरिबी का, मगर माथे आया फ़कत गरीबी का, कोई ना सुना ना समझा और एक दीवार खड़ा हुआ। फिर क्या हुआ? लेखक एक रोज आपने कमरे में पाया गया। था नब्ज़ चलता तो हकीम को भी बुलाया गया। हकीम का मर्ज था पैसा, उसे पैसा भी दिलाया गया। मगर लेखक को था जाने की जल्दी, उसने मांग की एक महफिल की । फिर क्या था ? एक बार फिर से महफिल लगाया गया, उसकी माशूका को भी बुलाया गया। जब लेखक देखा हाथों में मेंहदी अपने माशूका के, उससे - उसको अश्रु ना छुपाया गया। फिर क्या था? पहले सांस थमा, आँखें आखिरी दीदार की रुसवाई मांगी और फिर कलेजा बाहर को आ गया। जो आखिरी बूंद बचे थे अश्रु के वो अंगिया पर जा गिरा। "बेचारा...

उनकी आँखें

उनकी आँखों के त्वरूफ़ हम क्या करें? हम खुद ही उनकी आँखों में गोता खाए बैठे हैं। गर कोई पूछे हमसे मुसलसल माजरा क्या है? सच तो यह है कि हम जान बुझ कर घर का रस्ता भुलाए बैठे हैं। क्या कहूँ? क्या लिखूँ उनकी आँखों के बारे में? हम अपना ईमान बचाए बैठे हैं। क्या ग़ज़ल? क्या पहल? और क्या दोपहर! उनकी आँखों का नशा हम कुछ इस तरह से लगाए बैठे हैं। जाने क्या अच्छा क्या बुरा हम उनकी आँखों में हर बार डूब जाने को तैयार बैठे हैं। - राधा माही सिंह 

एक रोज़

एक शाम कही तेरे दरवाज़े पर ठहर कर, अपना कारवा बंद कर देंगे। देखना एक रोज़ तुम्हे पा कर हर मुहिम तुमसे जोड़ देंगे। तुम्हे मालूम ही नहीं तुम मेरे लिए कितने जरूरी हो। तुम दिनकर किसी राजा जैसे मेरे हिरामणि हो। एक रोज़ जब ग़र गुजरूंगा तुम्हारे गलियों से, देखन फिर कभी उस गली का रुख ना करूंगा। तुम लाख जतन कर लेना मगर, मैं नहीं लौटूंगा। देखना तुम्हारे साथ,तुम्हारे पास हर दफा हम होंगे। मगर एक रोज़ तुम्हारे कह देने भर से हम नहीं थमेंगे। तुम्हे मेरे पास आना होगा। देखना ये वक्त का न बहाना होगा। एक रोज जब हम तुम्हारे दरवाज़े पर ठहरेंगे। देखना गौर से कहीं वो मेरा जनाजा होगा। - राधा माही सिंह