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ऐ ज़िंदगी

ऐ ज़िंदगी, तू मुझे कहीं दूर ले चल, जहाँ बस मैं और तू ही रहें। ले चल मुझे उस फ़िज़ा में, जहाँ किसी की कोई तलब न रहे। गर मैं रहूँ ख़ामोश, तो तुम मेरे शब्दों को समझ जाना, मैं कहूँ बहुत कुछ, तो तुम मेरी गहराईयों को छू लेना। ऐ ज़िंदगी, अब हम तुम्हारे ही मोहताज़ हैं, सबने सहारे छिना हैं। हम तिनके-तिनके के लिए तड़पी हूँ। तू ले चल मुझे वहाँ, जहाँ तेरे आगोश में सर रखकर कुछ पल सुकून का सो सकूँ, और इस जहाँ को एतराज़ भी न हो। जहाँ मैं कह सकूँ, तू सुन सके, मैं रो सकूँ, तू हँसा सके, कोई बंदिश न हो, कोई हमें झुठला न सके। ऐ ज़िंदगी, तू मिलना किसी मुसाफ़िर की तरह, जो मैं कहूँ और तू न जा सके। मैं बाँधू तुझे अपने डोर से, तू सिसक सके, मैं बिलख सकूँ। मैं रूठ सकूँ, तू मना सके, बस यूँ ही चलता रहे ये सिलसिला। तू ले चल मुझे वहाँ, जहाँ कोई न जा सके। - राधा माही सिंह

किसी ने पूछा

किसी ने मुझसे पूछा, सुकून क्या है? मैंने कहा, उसका मुस्कुराना। किसी ने मुझसे पूछा, शर्म क्या है? मैंने कहा, उसका मुझसे यूं नज़रों को चुराना। किसी ने मुझसे पूछा, तड़प क्या है? मैंने कहा, उसका मुझसे वादा कर के ना मिलने आना। किसी ने मुझसे पूछा, शिद्दत क्या है? मैंने कहा, मेरा उससे एकतरफा दिल लगाना। किसी ने मुझसे पूछा, मौत क्या है? मैंने कहा, उसका मुझसे रूठ जाना। किसी ने मुझसे पूछा, फिर जज़्बात क्या हैं? मैंने कहा, मेरा उससे लिपटकर रोना और जो कभी पूरे ना हो सकें, उन ख्वाबों को बुनना। -राधा माही सिंह 

क्या इस जहां में

क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां तारे ज़मीन को चूमते होंगे? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां गगन भी अपने मगन में झूमते होंगे? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां बादल आकर मिट्टी की गोद में छुपते होंगे? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं,  जहां पानी की अपनी मिठास होगी? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां नीला अम्बर रहता होगा? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां समंदर में आग नहीं, बल्कि लहरें जलती होंगी? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां पिंजरों से आजाद पक्षी अपने घर को जाते होंगे? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां लोग खुलकर मुस्कुराते होंगे? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां लोग झूठे रिश्ते नहीं बनाते होंगे? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां तारों भरा एक आसमान होगा? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां दीवानों सा एक शायर होगा? क्या इस जहां में कोई ऐसा शहर नहीं, जहां कलमों की अपनी भाषाएं होंगी? - राधा माही सिंह 

आशा

तुम मुझे - मुझ जैसा ही चाहना। ये समुंदर, ये गहरी आंखों का तवजुब ना देना। सुनो, तुम मुझे - मुझ जैसा ही चाहना। मैं जैसी हूँ, जितनी हूँ, तुम्हारी ही हूँ। झील सी चंचल, मचलती हुई रागनी का कोई दावा ना देना। सुनो। तुम मुझे - मुझ जैसा ही चाहना। गर जो मैं हुई परिवर्तित। तो मैं मुझ से नहीं मिल पाऊंगी! मगर मिलना किसे है खुद से? मैं तुम में ही कही खो कर रह जाऊंगी। जब तने- बने से जी भर जाएगा,तो मुझे - मुझ में तुम्हारी तलाश रहेगी, इसलिए तुम मुझसे परिवर्तन का आश ना कर देना। सुनो ना। तुम मुझे - मुझ जैसी ही चाहना। - राधा माही सिंह 

तुम आना

ये पायल। ये झुमके। ये सब नहीं चाहिए मुझे। तुम जब भी आना तो एक आधा समय ले कर आना। जहां हम दोनों पूरी ज़िंदगी मिल कर गुजरेंगे। ये चॉकलेट। ये महंगे तोफे। इसके हम हकदार तो नहीं है। मगर तुम जब भी आना मेहरबान बन कर प्यार लूटना मुझ पर। हां माना मैं थोड़ी सी ज़िद्दी हूँ। मगर ये दिखाना। ये बात - बात पर जताना। नहीं चाहिए मुझको। तुम जब भी मेरे होना बेपाक इरादों से होना मुंतसर कुछ अधूरा सा ही होना मगर सच्चे इबादत से मेरा होना। मुझको नहीं चाहिए और कुछ भी। जब भी तुम आना मेरे लिए बस एक गुलाब और अपनी एक आधी जिंदगी ले कर आना जो मेरे संग बितानी हो। - राधा माही सिंह

जाने क्यों ?

जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है, कि एक तुझे पा कर मेरी सारी अधूरी सी ख्वाहिश मुकम्मल हो जाएगी? जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है, कि तेरे दीदार भर से मेरी चाहतों की हंसरते पूरी हो जाएगी? जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है, कि तुम्हारे बाहों में उलझ कर मेरी उलझने कम हो जाएंगी? जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है, कि तुम्हारे छूने भर से मेरी बेचैनियाँ मर जाएंगी? जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है, कि मेरी हर बात तुम पर खत्म हो जाएंगी? जाने मुझे क्यों लगता है, कि तुम्हें पा लेने भर से मेरी हर जुस्तजू राबता हो जाएगी

आखिरी शब्द

कुछ शब्दों के मर्यादाओं में हम भी उलझ कर रह गए। तो कुछ हमारी कहानी किसी मोड़ पर आ कर रुक गई। मुसलसल मसला यह नहीं है, कि कौन कहां तक और कब तलक साथ दिया है किसी का हर बार किसी ना किसी को दोस्ती,प्रेम और ना जाने कई रिश्तों के नाम पर छला गया। शब्दों का मानो अम्बार हो, सवालों का कोई समंदर हो, या मानो काली घटा से छट कर एक बूंद आ गिर हो ज़मी पर। देखते ही देखते लेखक का कहना कुछ और बातों से जोड़ा गया। किरदार लिखना चाहता था, मगरिबी का, मगर माथे आया फ़कत गरीबी का, कोई ना सुना ना समझा और एक दीवार खड़ा हुआ। फिर क्या हुआ? लेखक एक रोज आपने कमरे में पाया गया। था नब्ज़ चलता तो हकीम को भी बुलाया गया। हकीम का मर्ज था पैसा, उसे पैसा भी दिलाया गया। मगर लेखक को था जाने की जल्दी, उसने मांग की एक महफिल की । फिर क्या था ? एक बार फिर से महफिल लगाया गया, उसकी माशूका को भी बुलाया गया। जब लेखक देखा हाथों में मेंहदी अपने माशूका के, उससे - उसको अश्रु ना छुपाया गया। फिर क्या था? पहले सांस थमा, आँखें आखिरी दीदार की रुसवाई मांगी और फिर कलेजा बाहर को आ गया। जो आखिरी बूंद बचे थे अश्रु के वो अंगिया पर जा गिरा। "बेचारा...