खो चुकी हूँ उन्हें।

कब का खो चुकी हूँ,उन्हें मगर आज भी बस एक डर सा होता है उन्हें खो देने का।
गहराई से कोई नही जानता मगर सब कह देते है बहुत अच्छे से जानते है तुम्हे।
अब डर है,उनके खो देने का मगर पाई कब थी ये सवाल कचोटता है।
दीवारों पर लिखा एक नाम को अब भी बड़ा सिद्धत से निहारती हूँ,तब पता चला लिखा ही क्या है?सिवाए उनके नाम के अक्षरों का।
कब का खो चुकी हूँ उन्हें मगर आज भी बस एक डर सा होता है,उन्हें खो देने का।
          -राधा माही सिंह 

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