आज कल
आज-कल
आज-कल मेरे शब्द अधूरे से लगते है।जब से घर छोड़ी हूं, तब से शब्दों ने भी मेरे घर में आना जाना छोड़ दिया है।
अब डर लगता है.... कि कहीं "माही" मर ना जाए लोगो के जहन से।
अब यह डर हर रोज शताता रहता है।
आज कल - आज कल की रोशनी अब मेरे खिड़की पर आता रहता है।
लिखती हूं अल्फाज़ कई, मगर सुनने कहाँ कोई आता है?
दर्दों को लिखूं काग़ज़ पर या सिमरू एक डोर में।
इस व्यवस्ता भरी दौर में कहाँ कोई समझ पाता है?
कई रंग मिले है प्रेम को, मगर दर्दों का नाम आज तक कहाँ कोई दे पाता है?
- राधा माही सिंह
Lice
ReplyDeleteNice
ReplyDelete(Nitesh Kumar Singh)
ReplyDeleteGod Bless U
And Keep it up