हर रोज

हर रोज रातों की मेरी "बर्बादियो" का एक "मंजर"लगता है।
 जाने क्यों ये शामें मुझे तुम्हारी यादों की समंदर लगता है।
तो कभी मैं डूब कर तुम्हें तराशती हूं, इन समन्दर की गहराइयों में।
मगर फिर भी ना जाने क्यों सब कुछ अधूरा ख़ाब सा लगता है?
हर रोज सुबह मेरी "तसल्ली" वाली होती है।
 जाने फिर क्यों ये राते मेरी "बेमंतजर"  सी सोती है।
मेरे पास में कभी कुछ "खोने" को था ही नही।
मगर जाने ये "दिल" अब हर रोज "क्या" खोने से डरता है?
"इल्म"अब मुझे बस सिर्फ इतना है!
कि अब ये ज़िन्दगी घायल परिंदे जितना है।
 जाने कब "तसव्वुर" मिलेगी "इल्लाही"इस दिल को?
 कि बस अब इंतेजार "घड़ी"भर की है।
हर रोज निकलती है,मेरी खुशियों का जनाजा।
"खुदा" खुद ही मेरा "नमाजे जनाजा"  पढ़ने को आता है।
             -राधा माही सिंह 

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